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भगवती आराधना निन्द्यानां च गुणानां वहूनां असकृत्प्रवृत्तिः अनेकप्राणिलभ्यत्वात् । स्वप्राप्तेभ्यो गुणेभ्योऽतिशयितानां गुणानामन्यरुपलम्भनात् ॥१२२१॥ कुलाभिमाननिरासोपायमाचष्टे
णीचो वि होइ उच्चो उच्चो णीचत्तणं पुण उवेइ ।
जीवाणं खु कुलाई पधियस्स व विस्समंताणं ॥१२२२।। ‘णोचो वि होदि' स्थानमानैश्वर्यादिभिस्तिरोभूतो नीच इत्युच्यते । सोपि 'होदि' भवति । 'उच्चो' तैरेवोन्नतः। स उच्चो अतिशयितस्थानमानादिकोऽपि 'नीयत्तणं' तैय॑नतां । 'पुण उर्वदि' पुनः उपैति । 'जीवानां खु' जीवानां खलु । 'कुलाई' कुलानि । कीदृग्भूतानां ? 'विस्समत्ताणं' विश्रमतां बहूनि कुलानि कुलबहत्वप्रकटनेन कुलानित्यता दर्शिता । अनियतकुलस्य कः कूलगर्वः । 'पथिकरसव' पथिकस्य यथा विधामस्थानं न नियतमस्ति तद्वदेवास्येति भावः ॥१२२२॥
किं च गर्वो ह्यात्मनो वृद्धि परस्य वा हानि वुद्धया संक्षेपते तस्य युक्तोऽहंकारः न चास्य वृद्धिहानी स्त इति कथयति
उच्चासु व णीचासु व जोणीसु ण तस्स अस्थि जीवस्स ।
वड्ढी वा हाणी वा सव्वत्थ वि तित्तिओ चेव ॥१२२३॥ 'उच्चासु व णीचासु व' यत्र स्थित आत्मा शरीरं निष्पादयति तद्योनिशब्देनोच्यते । न तस्य उच्चता नीचता वा तत: किमुच्यते उच्चासु व णीचासु प इति । अत्रोच्यते-योनिशब्देन कुलमेवात्रोच्यते । तेनायमर्थः। भान्ये कुले गहिर्ते वा उत्पन्नस्य न तस्य जीवस्य वृसिर्हानिर्वा सर्वत्र तत्परिमाण एव ज्ञानादिअनेक निन्दनीय गुण, जो अहंकारमें निमित्त होते हैं, अनेक प्राणियों में पाये जाते हैं। तथा अपनेको जो गुण प्राप्त हैं उनसे भी अतिशयशाली गुण दूसरोंको प्राप्त हैं। अतः उनका अभिमान कैसा ? ||१२२१||
कुलका अभिमान दूर करनेका उपाय कहते हैं
गा०टी०-स्थान, मान, ऐश्वर्य आदिसे हीन व्यक्तिको नीच कहते हैं। जो स्थान, मान, ऐश्वर्य आदिसे हीन होता है वही नीच हो जाता है। जीवोंके कूल पथिकके विश्राम स्थानकी तरह हैं। जैसे पथिकके विश्राम लेनेका स्थान नियत नहीं है वैसे ही कुल भी नियत नहीं है। तब अनियत कुलका गर्व कैसा ? 'कुलानि' पद बहुवचनान्त होनेसे कुलोंकी बहुतायत प्रकट करता है। और कुलोंकी बहुतायतसे कुलोंकी अनित्यता दिखलाई है ।।१२२२१॥
आगे कहते हैं कि अपनी वृद्धि और दूसरेको हानिकी भावनासे गर्व होता है उसका अहंकार करना युक्त है किन्तु उच्च या नीच कुलमें जन्म लेनेसे आत्माकी हानि वृद्धि न
गा०-टी०-शंका-जिसमें रहकर जीव अपने शरीरको रचता है उसे योनि कहते हैं । योनि तो उच्च या नीच होती नहीं। तब 'उच्चासु व नीचासु' क्यों कहा?
___समाधान–यहाँ योनि शब्दसे कुलको ही कहा है । अतः ऐसा अर्थ होता है-मान्य कुलमें अथवा निन्दनीय कुलमें उत्पन्न हुए जीवको वृद्धि या हानि नहीं होती। सर्वत्र जीवका परिमाण
१. सुप्राप्येभ्यो-आ० मु०।
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