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विजयोदया टीका
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'दुक्खक्खय' दुःखानां शारीराणां, आगन्तुकानां स्वाभाविकानां च क्षयो भवतु । तथा कर्मणां तत्कारणभूतानां रत्नत्रयसम्पादनपुरःसरं मरणं, दीक्षाभिमुखो बोधिलाभश्च एतत्प्रार्थनीयं नान्यत् ॥१२१९॥
पुरिसत्तादीणि पुणो संजमलाभो य होइ परलोए ।
आराधयस्स णियमा तदत्थमकदे णिदाणे वि ॥१२२०॥ 'पुरिसत्तादीणि' पुरुषत्वादिकं, संयमलाभश्च भविष्यति परजन्मनि । कस्य ? कृतरत्नत्रयाराधनस्य निश्चयेन । तदर्थमकृतेऽपि निदाने ॥१२२०॥
माणस्स भंजणत्थं चिंतेदव्वो सरीरणिव्वेदो ।
दोसा माणस्स तहा तहेव संसारणिव्वेदो ॥१२२१॥ 'माणस्स भंजणत्यं' मानभञ्जनार्थ ध्यातव्यः शरीरनिर्वेदः । तथा दोषाश्च मानस्य । तथैव संसारनिर्वेदश्च ध्यातव्य इति क्षपकं निर्यापकसरिः शिक्षयति । शरीरस्य अशुचित्वादिस्वभावचिन्तनतः । कियेतेन . शरीरेणेति शरीरे अनादरः शरीरनिर्वेदः । स कथं मानस्य भञ्जने निमित्तं । स हि शरीरानुरागमेव विहन्ति तत्प्रतिपक्षत्वात् । अत्रोच्यते-मानशब्दः सामान्यवचनोऽपि रूपाभिमानविपयो गृहीतः । स च शरीरनिदेन भज्यते । मानस्य दोषा नीचकुलेषत्पत्तिर्मान्यगणालाभः, सर्वविद्वष्यता, रत्नत्रयाद्यलाभ इत्यादिकाः । संसारस्य: द्रव्यक्षेत्रकालभावभवपरिवर्तनरूपस्य पराङ्मुखता संसारनिर्वेदः । तत्रोपयुक्तस्य अहङ्कारनिमित्तानां विनाशात्, ।
____ गा०-हमारे शारीरिक, आगन्तुक और स्वाभाविक दुःखोंका नाश हो। तथा उनके कारणभूत कर्मोका क्षय हो। रत्नत्रयका पालन करते हुए मरण हो और जिनदीक्षाकी ओर अभिमुख करनेवाले ज्ञानका लाभ हो, इतनी ही प्रार्थना करने योग्य है। इनके सिवाय अन्य प्रार्थना करना योग्य नहीं है ॥१२१९।।
गा०-जो रत्नत्रयकी आराधना करता है उसे निदान न करने पर भी आगामी जन्ममें पुरुषत्व आदि का तथा संयमका लाभ निश्चय ही होता है ।।१२२०॥
गा-टी०–निर्यापकाचार्य क्षपकको शिक्षा देता है कि तुम्हें मानकषायका विनाश करनेके लिए शरीरसे निर्वेदका, मानके दोषों का और संसारसे निर्वेदका चिन्तन करना चाहिये। शरीरके अशुचित्व आदि स्वभावका चिन्तन करनेसे 'इस शरीरसे क्या लाभ' इस प्रकार शरीरमें अनादर होता है उसे ही शरीर निर्वेद कहते हैं।
शङ्का-शरीरका चिन्तन मानकषायको दूर करनेमें निमित्त कैसे हो सकता है उससे तो शरीर में अनुराग का ही घात होता है क्योंकि शरीर निर्वेद उसका प्रतिपक्षी है ?
समाधान-यद्यपि मान शब्द मानसामान्यका वाचक है तथापि यहाँ रूपविषयक अभिमान लिया है। वह शरीरके निर्वेदसे नष्ट होता है। नीच कुलोंमें जन्म, आदरणीय गुणोंका प्राप्त न होना, सबका अपनेसे द्वेष करना, रत्नत्रय आदिका लाभ न होना, ये सब मानकषायसे होनेवाले दोष हैं। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भवपरिवर्तन रूप संसारसे विमुख होना संसारनिर्वेद है। संसारनिर्वेदमें उपयोग लगानेसे अहंकारके निमित्तोंका विनाश होता है। क्योंकि
१. मेवावहति-आ० मु०।
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