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भगवती आराधना बहुसो वि लद्धविजडे को उच्चत्तम्मि विन्भओ णाम ।
बहुसो वि लद्धविजडे णीचत्ते चावि किं दुक्खं ॥१२२५।। ‘एवं बहुसो वि' बहुशोऽपि, 'लद्धविजडे' लब्धपरित्यक्ते च । 'उच्चत्तम्मि' मान्यकुलप्रसूतत्वे । 'को णाम विभओं को नाम विस्मयः । कदाचिदलब्धपूर्वमिदानीमेव लब्धमिति भवेदगर्व:। 'बहसो 'लविजडे' लब्धपरित्यक्ते । 'णीचत्ते चावि' नीचैर्गोत्रप्रसूतत्वे अपि । “कि दुक्खं' किमिदं दुःखं ॥१२२५॥
उच्चत्तणम्मि पीदी संकप्पवसेण होइ जीवस्स ।
णीचत्तणे ण दुक्खं तह होइ कसायबहुलस्स ॥१२२६॥ 'उच्चत्तणम्मि' मान्यकुलत्वे । 'पोवो' प्रीतिः । 'संकप्पवसेण' संकल्पवशेन 'होदि जीवस्स' भवति जीवस्य प्रशस्ते कुले जातोऽहमिति मनोनिधानात् प्रीतो भवत्यत्यर्थं जनः नेत्थंभूतं संकल्पमन्तरेण सामान्यकुलत्वे सत्यपि प्रीतिर्भवति । नीचकुलत्वमेव च न दुःखस्य निमित्तं । अपि च 'नीचत्तणे य' नीचर्गोत्रत्वे च दुःखं 'तथा होदि' तथा भवति । प्रीतिरिव परनिमित्तकं भवति । कस्य ? 'कषायबलस्स' कसायशब्दः सामा वचनोऽपि मानकषाये वर्तते । तेनायमर्थः प्रचुरमानकषायो जनयति दुःखमस्य न नीचैर्गोत्रत्वमेव ।।१२२६॥ प्रीतिपरितापौ संकल्पायत्तावित्येतत्स्पष्टयत्युत्तरगाथया
उच्चत्तणं व जो णीचत्तं पिच्छेज्ज भावदो तस्स ।
उच्चत्तणे व णीचत्तणे वि पीदी ण किं होज्ज ॥१२२७।। 'उच्चत्तणं व' उच्च र्गोत्रत्वमिव 'जो णीचत्तं पेच्छदि' यो नीचैर्गोत्रं प्रेक्षते इदं चण्डालत्वं वरमिति । भावशब्दोऽनेकार्थवाच्यपि इह चित्तवाची। यत् येन लब्धं तत्तस्य शोभनं । अलभ्येन शोभनेनापि किं तेनेति मनसि करोति यदा तदा तत्रैव प्रीतिरस्य जायते इति वदति 'उच्चत्तणे वि' मान्यकुलत्व इव 'नीचत्तणेऽवि' नीचर्गोत्रत्वेऽपि । 'पीवी किं ण होज्ज' प्रीतिः किं न भवेत् भवत्येवेति यावत् ।।१२२७।।
गा०-इस प्रकार अनन्त बार प्राप्त करके छोड़े हुए उच्च कुलमें जन्म लेनेका गर्व कैसा? गर्व तो तब होता जब अभी तक न पानेके बाद प्रथम बार ही इसे प्राप्त किया होता । तथा अनन्त बार प्राप्त करके छोड़े हुए नीच गोत्रमें जन्म लेनेका दुःख कैसा ॥१२२५।।
गा०-टी.--'मैं उच्च कुलमें जन्मा हूं' ऐसा मनमें संकल्प होनेसे जीवका उच्चकुलमें अत्यन्त अनुराग होता है । इस प्रकारके संकल्पके बिना सामान्य कुलमें जन्म होने पर भी अनुराग नहीं होता । तथा नीच कुलमें जन्म लेना ही दुःखका कारण नहीं है। दुःखका कारण है मानकषायकी बहुतायत । गाथामें कषाय शब्द सामान्यवाची है तथापि यहाँ उसका अर्थ मानकषाय लेना चाहिए । मानकषायकी बहुतायत जीवको दुःख देती है, केवल नीच गोत्रमें जन्म ही दुःखका कारण नहीं होता ॥१२२६।।
अनुराग और दुःख संकल्पके अधीन हैं, यह कहते हैं
गा०-टी०-गाथामें आये भाव शब्दके यद्यपि अनेक अर्थ हैं तथापि यहाँ उसका अर्थ चित्त लिया है। जो मनसे उच्च गोत्रके समान नीच गोत्रको देखता है अर्थात् यह चाण्डाल कुलमें जन्म श्रेष्ठ है ऐसा मानता है। मनमें विचारता है कि जो जिसको प्राप्त है वही उसके लिए उत्तम है। जो प्राप्त नहीं है वह श्रेष्ठ भी हो तो उससे क्या? ऐसा विचार करते ही उच्च कुलके समान नीच
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