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विजयोदया टीका
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'आमंतणी' यया वाचा परोऽभिमुखीक्रियते सा आमन्त्रणी। हे देवदत्त इत्यादि । अगृहीतसंकेतं नाभिमुखी करोति इति न सत्यैकान्तेन गृहीतमभिमुखी करोति तेन न मृषा गृहीतागृहीतसंकेतयोः प्रतीतिनिमित्तमनिमित्तं चेति यात्मकता । स्वाध्यायं कुरुत, विरमतासंयमात् इत्यादिका अनुशासनवाणी आणवणी । चोदितायाः क्रियायाः करणमकरणं वापेक्ष्य नैकान्तन सत्या न मषैव वा। 'जायणी' ज्ञानोपकरणं पिच्छादिकं वा भवद्भिर्दातव्यं इत्यादिका याचनी । दातुरपेक्षया पूर्ववदुभयरूपा । निरोध' वेदनास्ति भवतां न वेति प्रश्नवाक् 'संपुच्छणो' । यद्यस्ति सत्या न चेदितरा इति । वेदनाभावाभावमपेक्ष्य प्रवृत्तेरुभयरूपता । 'पण्णवणी' नाम धर्मकथा । सा बहू न्निर्दिश्य प्रवृत्ता कैश्चिन्मनसि करणमितरैरकरणं चापेक्ष्य द्विरूपा। 'पच्चक्खाणी' नाम केनचिद्गुरुमननुज्ञाप्य इदं क्षीरादिकं इयन्तं कालं मया प्रत्याख्यातं इत्युक्त कार्यान्तरमुद्दिश्य तत्कुर्वित्युदितं गुरुणा प्रत्याख्यानावधिकालो न पूर्ण इति नैकान्ततः सत्यता गुरुवचनात्प्रवृत्तो न दोषायेति न मृषकान्तः । 'इच्छानुलोमा य' ज्वरितेन पुष्टं घृतशर्करामिधं क्षीरं न शोभनमिति । यदि परो ब्रूयात् शोभनमिति माधुर्यादि
गा०-आमन्त्रणी, आणवणी, याचनी, संपुच्छणी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी और इच्छानुलोमा।
टी०-जिस वचनसे दूसरेको बुलाया जाता है वह आमंत्रणी भाषा है। जैसे हे देवदत्त ! यह वचन जिसने संकेत ग्रहण नहीं किया उसे बुलाने वालेके अभिमृख नहीं करता अर्थात् वह बुलाने पर नहीं आता । इसलिए यह वचन सत्य भी नहीं है और जिसने सर्वथा संकेत ग्रहण किया है उसे अभिमुख करता है इसलिए असत्य भी नहीं है। इस तरह यह वचन गृहीत संकेत वालेको तो प्रतीति कराने में निमित्त होता है किन्तु जिसने संकेत ग्रहण नहीं किया उसको प्रतीति कराने में निमित्त नहीं होनेसे दो रूप है। 'स्वाध्याय करो, असंयमसे विरत होओ,' इत्यादि अनुशासन वचन आणवणी है। जो काम करनेकी प्रेरणा की गई है वह करने या करनेकी अपेक्षा यह एकान्तसे सत्य है और न एकान्तसे असत्य है। आप मुझे ज्ञानके उपकरण अथवा पीछी आदि प्रदान करें, इत्यादि वचन याचनी भाषा है। यह भी दाताकी अपेक्षा पहलेकी तरह न तो सर्वथा सत्य है और न सर्वथा असत्य है क्योंकि माँगने पर दाता दे भी सकता है और नहीं भी दे सकता।
आपकी वेदना-कष्ट रुका या नहीं? या निरोध-जेलमें आपको कष्ट है या नहीं? इस प्रकार पूछना संपृच्छनी भाषा है। यदि वेदना है तो सत्य है, नहीं है तो मिथ्या है । इस प्रकार वेदनाके भाव और अभावकी अपेक्षासे प्रवृत्त होनेसे यह वचन उभयरूप है।
धर्मकथाको पण्णवणी या प्रज्ञापनी कहते हैं। यह बहुतसे श्रोताओंको लक्ष करके होती है अतः कुछ तो अपने मनमें उसका पालन करनेका विचार करते हैं और कुछ नहीं करते। इस अपेक्षा यह भी उभयरूप है। प्रत्याख्यानी भाषा इस प्रकार हैं-किसीने गुरुसे निवेदन किये विना यह दूध आदि मैंने इतने कालतक त्यागा' ऐसा नियम किया। किसी अन्य कार्यको लक्ष करके गुरुने कहा ऐसा करो। उसके त्याग करनेकी मर्यादाका काल पूरा नहीं हुआ, इसलिए उसका प्रत्याख्यान सर्वथा सत्य नहीं है और गरुकी आज्ञासे उसने त्यागी हई व इसलिए दोष भी न होनेसे सर्वथा असत्य भी नहीं हैं।
इच्छानुलोमा भाषा इस प्रकार है-किसी ज्वरके रोगीने पूछा-घी और शक्कर मिला
१. धो वेदनाया अस्ति-आ० । निरोधो वेदनास्ति-ज० २. श्य तद्गुरुहितं-ज० श्य तरुहिवंगु - अ० । श्य तद्गहितं ग़-आ० । ३. कालेन पूर्व इति-अ । कालो न पूर्व इति-ज।
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