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विजयोदया टीका सत्सु नो तिष्ठेत् । भिक्षाचर भिक्षामार्गणभूमिमतिक्रम्य न गच्छेत् । याञ्चामव्यक्तस्वनं वा स्वागमननिवेदनाथं न कुर्यात् । विद्युदिव स्वां तनुं च दर्शयेत् कोऽमलभिक्षां दास्यतीति अभिसंधि न कुर्यात् । रहस्यगृहं, वनगह, कदलीलतागुल्मगृह, नाट्यगान्धर्वशालाश्च अभिनन्द्यमानोऽपि न प्रविशेत । बहजनप्रचारे प्राणिरहिते अशुच्यपरोपरोधवजिते, अनिर्गमनप्रवेशमार्गे गृहिभिरनुज्ञातस्तिष्ठेत् । समे विच्छिद्रे, भूभागे चतुरङ्गुलपादान्तरो निश्चल: कुड्यस्तम्भादिकमनवलम्ब्य तिष्ठेत् । छिद्रद्वारं कवाटं, प्राकारं वा न पश्येत् चोर इव । दातुरागमनमार्ग अवस्थानदेशं, कडुच्छकभाजनादिकं च शोधयेत् । स्तनं प्रयच्छन्त्या, गभिण्या वा दीयमानं न गृह्णीयात् । रोगिणा, अतिवृद्धेन, बालेनोन्मत्तेन, पिशाचेन, मुग्धेनान्धेन, मूकेन, दुर्बलेन, भीतेन, शङ्कितेन, अत्यासन्नेन, दूरेण, लज्जाव्यावृतमुख्या, आवृतमुख्या, उपानदुपरिन्यस्तपादेन वा जनेनोन्नतदेशावस्थितेन वा दीयमानं न गृह्णीयात् । न खण्डेन भिन्नेन वा कडकच्छुकेन दीयमानं कपालोच्छिष्टभाजने पद्मकदलीपत्रादिभाजने निक्षिप्य दीयमानं वा मांसं, मध, नवनीतं, फलं अदारितं, मूलं, पत्रं, साङ्करं, कन्दं च वर्जयेत् । तत्संस्पृष्टानि सिद्धान्यपि विपन्नरूपरसगन्धानि, कथितानि, पुष्पितानि, पुराणानि, जन्तुसंस्पृष्टानि च न दद्यान्न खादेत्, न स्पृशेच्च । उद्गमोत्पादनैषणादोषदुष्टं नाभ्यवहरेत् । नवकोटिपरिशुद्धाहारग्रहणमेषणासमितिः ।
भिक्षाके लिए खड़े हों उस घरमें प्रवेश न करे। जिस घरके कुटुम्बी घबराये हों, उनके मुखपर विषाद और दोनता हो वहाँ न ठहरे। भिक्षार्थियोंके लिए भिक्षा मांगनेकी जो भूमि हो, उस भूमिसे आगे न जावे। अपना आगमन बतलानेके लिए याचना या अव्यक्त शब्द न करे। बिजलीकी तरह अपना शरीरमात्र दिखला दे। कौन मुझे निर्दोष भिक्षा देगा ऐसा भाव न करे । एकान्त घरमें, उद्यान घरमें, केले लता और झाड़ियोंसे बने घरमें, नाट्यशाला और गायनशालामें आदरपूर्वक आतिथ्य पानेपर भी प्रवेश न करे। जहाँ बहुतसे मनुष्योंका आना जाना हो, जीव
हित, अपवित्रता रहित. दसरेके द्वारा रोक-टोकसे रहित तथा जाने आनेके मार्गसे रहित स्थानमें गृहस्थोंकी प्रार्थनासे ठहरे। सम और छिद्ररहित जमीनपर दोनों पैरोंके मध्यमें चार अंगुलका अन्तर रखकर निश्चल खड़ा हो और दीवार स्तम्भ आदिका सहारा न ले। चोरकी तरह द्वारमें लगे कपाटोंके छिद्र अथवा चार दीवारीके छिद्रमेंसे न देखे । दाताके आनेके मार्ग, उसके खड़े होनेके स्थान और करछुल आदि भाजनोंकी शुद्धताकी ओर ध्यान रखे। जो स्त्री बालकको दूध पिलाती हो या भिणी हो, उसके द्वारा दिये गये आहारको ग्रहण न करे। रोगी, अतिवृद्ध, बालक, पागल, पिशाच, मूढ, अन्धा, गूंगा, दुर्बल, डरपोक, शंकालु, अति निकटवर्ती, दूरवर्ती मनुष्यके द्वारा, जिसने लज्जासे अपना मुख फेर लिया या मुखपर घूघट डाला है ऐसी स्त्रीके द्वारा, जिसका पैर जूतेपर रखा है या जो ऊँचे स्थानपर खड़ा है ऐसे व्यक्तियोंके द्वारा दिये गये आहारको ग्रहण नहीं करे । टूटे हुए या फूटे हुए करछुल आदिसे दिया हुआ आहार ग्रहण न करे। तथा कपालमें, जूठे पात्रमें, कमल केले आदिके पत्ते आदिमें रखकर दिया हुआ आहार ग्रहण न करे। मांस, मधु, मक्खन, विना कटा फल, मूल, पत्र, अंकुरित तथा कन्द ग्रहण न करे । इनसे जो भोजन छू गया हो उसे भी ग्रहण न करे। जिस भोजनका रूप
गड गया हो, दर्गन्ध आती हो, फफन्द आ गई हो, पुराना हो गया हो और जीवजन्तु जिसमें पड़े हों उसे न तो किसीको देना चाहिये, न स्वयं खाना चाहिये और उसे छूनातक
१. तनु न च-अ० ज०। २. न्नेन अदूरे-अ० ज० मु। ३. फलाई हरितं-अ० । ४. चराद-अ० । च दीनाद-ज० ।
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