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विजयोदया टीका
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अत्र चोद्यं -- हिंसादिभ्यो विरतिपरिणाममात्राणि व्रतानि । शल्ये मिथ्यात्वादिके सति किं न भवन्ति । येनैवमुच्यते निःशल्यस्यैव महाव्रतानि भवन्ति इति ? एतत्प्रतिविधानायाह-- 'वदमुवहम्मदि' व्रतमुपहन्यते । 'तोहि टु' तिसृभिः । 'णिदाणमिच्छत्तमायाहिं' निदानमिध्यात्वमायाभिः । अल्पाच्तरत्वान्मायाशब्दस्य पूर्वनिपात इति चेन्न—मिथ्यात्वं व्रतविघातं प्रकर्षेण करोतीति प्रधानं ततो मिथ्यात्वं माया चेति द्विपदे द्वन्द्व मिध्यात्वशब्दस्य पूर्वनिपातः पश्वान्निदानशब्देन द्वन्द्वः तस्याल्पाच्तरत्वात्पूर्वनिपातः । सम्यक् चारित्रमिह मोक्षमार्गत्वेन प्रस्तुतं, तच्च नासतोः सम्यग्दर्शनज्ञानयोर्भवति । सति मिथ्यात्वे विरोधिनि न ते स्तः समोचीनज्ञानदर्शने' । रत्नत्रयत्वान्मुक्तेः अनन्तज्ञानादिकाच्चान्यत्र चित्तप्रणिधानं इदमेतत्फलं स्यादिति निदानं । तच्च सम्यग्दर्शनादिपरम्परया व्रतोपघातकारि । मनसा स्वातिचारनिगूहनलक्षणा माया च व्रतमुपहन्तीति मन्यते ॥ १२०८॥ तत्थं णिदाणं तिविहं होइ पसत्थापसत्थभोगकदं ।
तिविधं पि तं णिदाणं परिपंथो सिद्धिमग्गस्स || १२०९ ॥
'तत्य' तेषु शल्येषु । 'णिदाणं' निदानाख्यं शल्यं । 'तिविधं' त्रिविधं । 'होदि' भवति । 'पसत्यमप्पसत्यभोगकदं' प्रशस्त निदानमप्रशस्त निदानं, भोगनिदानं चेति । 'तिविधं पि तन्निदानं' त्रिप्रकारमपि निदानं । ' परिपंथो' विघ्नः । 'सिद्धिमग्गस्स' रत्नत्रयस्य ।।१२०९ ॥
समाधान- आपका कहना सत्य है किन्तु यहाँ महाव्रतका प्रकरण होनेसे महाव्रतोंका घातक कहा है ।
शंका - व्रत तो हिंसा आदिसे विरतिरूप परिणाम मात्र हैं । वे मिथ्यात्व आदि शल्यके होने पर क्यों नहीं होते, जिससे यह कहा गया है कि निःशल्यके ही महाव्रत होते हैं ?
समाधान - इस शङ्काका निराकरण करनेके लिये कहते हैं-निदान, मिथ्यात्व और माया इन तीनोंके द्वारा व्रतका घात होता है ।
शंका- माया शब्द अल्प अच्वाला है अतः उसे पहले रखना चाहिये ? समाधान- नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व व्रतका घात प्रकर्ष रूपसे करता है अतः प्रधान है । तब 'मिथ्यात्व और माया' ऐसा द्वन्द्व समास करने पर मिथ्यात्व शब्दका पूर्व निपात होता है । फिर निदान शब्दके साथ द्वन्द्व करने पर निदान शब्दका पूर्व निपात होता है क्योंकि वह अल्प अच्वाला है । यहाँ मोक्षके मार्ग रूपसे सम्यक्चारित्रका कथन है । वह सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके अभाव में नहीं होता । क्योंकि विरोधी मिथ्यात्वके रहते हुए सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन नहीं होते । रत्नत्रयरूप अथवा अनन्त ज्ञानादिरूप मुक्तिसे अन्यत्र चित्तका उपयोग लगाना कि इसका यह फल मुझे मिले, निदान है । वह सम्यग्दर्शन आदिकी परम्परासे व्रतका घातक है । तथा मनसे अपने दोषोंको छिपाने रूप माया भी व्रतका घात करती है ।
विशेषार्थं - निदानसे सम्यग्दर्शन में अतिचार लगता है और व्रतका मूल सम्यग्दर्शन है । तथा निदानसे व्रतोंका घात होता है || १२०८ ||
गा०—उन शल्यों में निदान नामक शल्यके तीन भेद हैं- प्रशस्त निदान, अप्रशस्त निदान और भोग निदान । तीनों ही प्रकारका निदान मोक्षके मार्ग रत्नत्रयका विरोधी है ।। १२०९ ।।
१. र्शनचारित्ररत्न - आ० मु० । २. नानि प-आ० ।
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