________________
५६४
भगवती आराधना
_ 'ठिदिगदि'-स्त्रीणां स्थित्या, गत्या विभ्रमेण, नर्तनाभिप्रायेण, निगृहनेन, कटाक्षावलोकनेन, शोभया, इत्या, क्रीडया, सहगमनासनादिना उपचारेण च ।।१०८३।।।
हासोवहासकीडारहस्सवीसत्थजंपिएहिं तहा ।
लज्जामज्जादीणं मेरं पुरिसो अदिक्कमदि ॥१०८४।। 'हासोपहासकीडा' हासेन प्रतिहासेन च, क्रीडया, एकान्ते विश्वस्तल्पितेन च लज्जामर्यादयोः सीमातिक्रमं करोति नरः ॥१०८४॥
ठाणगदिपेच्छिदुल्लावादी सव्वेसिमेव इत्थीणं ।
सविलासा चेव सदा पुरिसस्स मणोहरा हुंति ।।१०८५।। 'ठाणगदि' स्थानं, गतिः, प्रेक्षितमुल्लापमत्यादयः सर्वासामेव स्त्रीणां सविलासाः पुरुषस्य मनः सदापहरन्ति ।।५०८५॥
संसग्गीए पुरिसस्स अप्पसारस्स लद्धपसरस्स ।
अग्गिसमीवे' व घयं मणो लहुमेव हि विलाइ ॥१०८६।। 'संसग्गोए' सहगमनेन, गमनेन, आसनेन च पुरुषस्य अल्पसारस्य लब्धप्रसरस्य मनो द्रवोभवति । अग्निनिकटस्थिता लाक्षेव ॥१०८६।।
संसग्गीसम्मूढो मेहुणसहिदो मणो हु दुम्मेरो ।
पुवावरमगणतो 'लंघेज्ज सुसीलपायारं ॥१०८७।। 'संसग्गीसम्मूढो' स्त्रीसंसर्गसंमूढः मनो मिथुनकर्मपरिणतं निमर्यादं पूर्वापरमगणयदुल्लंघयेच्छी लप्राकारं ।।१०८७॥
गा०-टो०-तथा स्त्रियोंके खड़े होने, गमन करने नेत्रोंके अनुराग, कटाक्ष क्षेप, हास्यपूर्ण चेष्टा, शोभा, कान्ति, क्रीड़ा, साथ-साथ चलना, बैठना आदि उपचारोंसे, ह्रास उपहाससे, तथा एकान्तमें विश्वासयुक्त वार्तालापसे पुरुष लज्जा और मर्यादाकी सीमाका उल्लंघन करता है ॥१०८३-१०८४॥
गा०-सब ही स्त्रियोंका विलास सहित खड़ा होना, गमन करना, देखना, वोलना आदि सदा पुरुषोंके मनको हरता है ॥१०८५॥
गा०—निर्बल चित्त और स्वेच्छाचारी मनुष्यका मन स्त्रियोंके संसर्गसे उनके साथ उठने वैठने और आने जानेसे आगके पासमें रखे घी या लाखको तरह द्रवीभूत हो जाता है ।।१०८६।।
गा०-इस प्रकार स्त्रीके सहवाससे मूढ़-मोहित हुआ मन मैथुन संज्ञासे पीड़ित होकर निर्मर्याद हो जाता है और आगे पीछे न देखते हुए सुन्दर शीलरूपी परिकोटको लाँघ जाता है ॥१०८७॥
१. वे लक्खेव म-भु० । २. णिम्मेरो-मूलारा० । ३. उट्ठ वदि उल्लंघयति-मूलारा० ।
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only