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भगवती आराधना
__ 'तम्हा' तस्मात् । 'सन्वे संगे' सर्वान्परिग्रहान् । 'अणागदे' अनागतान् । 'वट्टमाणगे तोदे' वर्तमानानतीतांश्च 'तं' भवान् । 'सव्वत्थ णिवारेहि' सर्वथा निवारय । करणकारावणाणुष्णाहिं' कृतकारिताभ्यामनुमोदनेन । कथं अतीतो भावी वा परिग्रहो बन्धकारणं येन निवार्यते? अयमभिप्रायः अतीतस्वस्वामिसम्बंधेऽपि वस्तूनि ममेदं वस्त्वासीदिति तदनुस्मरणानुरागादिना अशुभपरिणामेन बन्धो भवतीति मा कृथास्तदनुस्मरणं अनुरागं वा । एवं भविष्यति इत्थभूतं मम द्रविणं इति ॥११७३।।
जावंति केइ संगा विराधया तिविहकालसंभूदा ।
तेहिं तिविहेण विरदो विमुत्तसंगो जह सरीरं ॥११७४।। 'जावंति केइ संगा' यावन्तः केचन परिग्रहाः । 'विराधगा' विनाशकाः । कस्य ? रत्नत्रयस्य । 'तिविधकालसंभूदा' कालत्रयप्रवृत्ताः । 'तेहि तिविधेण विरदो' तेम्यो मनोवाक्कायविरतः सन् 'विमुत्तसंगो' विमुक्तसङ्गः । 'जह सरीरं' त्यज शरोरं ॥११७४।।
एवं कदकरणिज्जो तिकालतिविहेण चेव सव्वत्थ ।
आसं तण्हं संगं छिंद ममत्तिं च मुच्छं च ॥११७५।। 'एवं कदकरणिज्जो' एवं कृतकरणीयः । यत्कर्तव्यमाराधनां वांछता आहारशरीरत्यागादिकं स एवं भूतः । 'तिकाले वि' कालत्रयेऽपि । 'तिविधेण' त्रिविधेन । 'सम्वत्थ' सर्वविषयां सुखसाधनगोचरां । 'आसं' आशां । 'तण्हं' तृष्णां । 'संग' परिग्रहभूतां । “छिद मत्ति' ममेदमिति संकल्पं छिद्धि । 'मुच्छं' मोहमिति यावत् ।।११७५।।
गा०-टी०-यतः परिग्रह रखने पर इस लोक और परलोकमें बहुतसे दोष होते हैं अतः हे क्षपकः तुम सब अनागत, वर्तमान और अतीत परिग्रहोंको कृतकारित अनुमोदनासे सर्वथा दूर करो।
शंका-अतीत और भावि परिग्रह बन्धका कारण कैसे हैं जिससे उसका त्याग कराते हो ?
समाधान-इसका यह अभिप्राय है यद्यपि अतीत वस्तुके साथ जो स्वामी सम्बन्ध था वह जाता रहा, फिर भी उसमें 'मेरे पास अमुक वस्तु थी' इस प्रकारके स्मरण और अनुराग आदिरूप अशुभ परिणामोंसे बन्ध होता है इसलिए उसका स्मरण वा अनुराग मत करो। इसी प्रकार 'मेरे पास आगामीमें अमुक धन आदि होगा' ऐसा चिन्तन करनेसे भी कर्मका बन्ध होता है ।।११७३।।
गा०–अतः हे क्षपक ! तीनों कालोंका जितना भी परिग्रह रत्नत्रयका विनाशक है उस सबको मन वचन कायसे छोड़कर अपरिग्रही बनो और तव शरीरका त्याग करो ॥११७४॥
___ गा०-इस प्रकार आराधनाके इच्छुकका आहार शरीर आदिका त्याग रूप जो कर्तव्य है वह जिसने कर लिया है ऐसे तुम हे क्षपक ! तीन कालोंके परिग्रहोंमें मन वचन कायसे आशा, तृष्णा, संग, ममत्व और मूर्छाको दूर करो ॥११७५।।
टी०-ये इस प्रकारके विषय मुझे चिरकाल तक प्राप्त हों यह आशा है। ये कभी भी मुझसे अलग नहीं हों इस प्रकारकी अभिलाषा तृष्णा है। परिग्रहमें आसक्ति संग है। ये मेरे भोग्य हैं में इनका भोक्ता हूं ऐसा संकल्प ममत्व है । अत्यासक्ति मूर्छा है ।।११७५॥ .
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