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विजयोदया टीका
प्रवचनमातृकाव्याख्यानायोत्तरप्रबन्धस्तत्र मनोगुप्सिं वाग्गुतिं व्याख्यातुमायातोत्तरगाथा -
जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुत्तिं ।
अलियादिणियत्ती वा मोणं वा होइ वचिगुत्ती ॥११८१ ॥
'जा रागादिणियत्ती मणस्स जाणाहि तं मणोगुति' या रागद्वेषाभ्यां निवृत्तिर्मनसस्तां जानीहि मनोगुप्ति । अत्रेदं परीक्ष्यते । मनसो गुप्तिरिति यदुच्यते कि प्रवृत्तस्य मनसो गुप्तिरथाप्रवृत्तस्य ? प्रवृत्तं चेदं शुभं मनः तस्य का रक्षा । अप्रवृत्तं यदि तथापि असतः का रक्षा ? सतोऽप्यपायपरिहारोपयुक्ततेत्युच्यते ? किं च मनः शब्देन किमुच्यते द्रव्यमन उत भावमनः ? मनोद्रव्यवर्गणा मनश्चेत् तरय कोऽपायो नाम यस्य परिहारो रक्षा स्यात् ? किं च द्रव्यान्तरेण तेन रक्षितेनास्य जीवस्य फलं य आत्मनः परिणामोऽशुभमावहति । ततोयुक्ता रक्षात्मनः । अथ नो इन्द्रियमतिज्ञानावरणक्षयोपशमसंजातं ज्ञानं मन इति गृह्यते तस्य अपायः कः ? यदि विनाशः स न परिहर्तुं शक्यते यतोऽनुभवसिद्धो विनाशः । अन्यथा एकस्मिन्नेव ज्ञाने प्रवृत्तिरात्मनः स्यात् । ज्ञानानीह वीचय इवानारतमुत्पद्यन्ते न चास्ति तदविनाशोपायः । अपि च इन्द्रियमतिरपि रागादिव्यावृत्तिरिष्टव किमुच्यते रागादिणियत्ती मणस्स इति ।
अत्र प्रतिविधीयते — नो इन्द्रियमतिरिह मनः शब्देनोच्यते । सा रागादिपरिणामैः सह एककालं आत्मनि प्रवर्तते । न हि विषयावग्रहादिज्ञानमन्तरेणास्ति रागद्वेषयोः प्रवृत्तिः, अनुभवसिद्धैवास्ति नापरा युक्तिः अनुगम्यते । वस्तुतत्वानुयायिना मानसेन ज्ञानेन समं रागद्वेषो न वर्तेते इत्येतदप्यात्मसाक्षिकमेव । तेन मनसस्त
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आगे प्रवचन माताओंका व्याख्यान करते हैं । उनमें से प्रथम मनोगुप्ति और वचनगुप्तिका व्याख्यान करते हैं
गा० - टी० - मनकी जो रागादिसे निवृत्ति है उसे मनोगुप्ति जानो ।
शंका—यहाँ यह विचार करते हैं कि यह जो आप मनकी गुप्ति कहते हैं सो यह गुप्ति प्रवृत्त की है या अप्रवृत्त मनकी है ? प्रवृत्त मन तो शुभ रूप होता है उसकी रक्षा कैसी ? यदि मन अप्रवृत्त है तो वह असत् हुआ, उसकी रक्षा कैसी । प्रवृत्त मनकी अपायसे बचाव करनेमें उपयोगिता होती है । तथा मन शब्दसे द्रव्यमन लेते हैं या भावमन ? यदि द्रव्यवर्गणा रूप मन लेते हैं तो उसका अपाय क्या, जिससे वचनेसे उसकी रक्षा हो । तथा द्रव्यवर्गणा रूप मन तो भिन्न द्रव्य है । उसकी रक्षा करनेसे इस जीवको क्या लाभ जो आत्माके अशुभ परिणाम करता है । अतः आत्माकी रक्षाकी बात युक्त नहीं है । यदि नोइन्द्रिय मतिज्ञानावरणके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुए ज्ञानको मन शब्दसे ग्रहण करते हैं तो उसका अपाय क्या है ? यदि अपायसे मतलब विनाश है तो उसका परिहार शक्य नहीं है क्योंकि विनाश तो अनुभवसे सिद्ध है । यदि ज्ञानका विनाश न हो तो आत्माकी प्रवृत्ति सदा एक ही ज्ञानमें रहे । किन्तु ज्ञान तो तरंगोंकी तरह निरन्तर उत्पन्न होते रहते हैं । उनके विनाश न होनेका कोई उपाय नहीं है । तथा इन्द्रियजन्य मतिकी भी रागादिसे व्यावृत्ति मान्य है तब 'मनकी रागादिसे निवृत्ति' क्यों कहते हैं ?
समाधान- यह मन शब्द से नोइन्द्रिय जन्य मति कही है । वह आत्मामें रागादि परिमोंके साथ एक ही कालमें प्रवृत्तिशील है । विषयोंका अवग्रहादिज्ञान हुए विना रागद्वेषमें प्रवृत्ति नहीं होती, यह बात अनुभव सिद्ध है । इसमें अन्य कोई युक्ति नहीं है । जो मानस ज्ञान वस्तुतत्त्वके अनुसार होता है उस ज्ञानके साथ रागद्वेष नहीं होते यह बात आत्मसाक्षिक है । अतः तत्त्व
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