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विजयोदया टीका
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योग्यवचसः कता ततो महान्भेदो गुप्तिसमित्योः । मौनं वाग्गप्तिरत्र स्फुटतरो वचोभेदः । योग्यस्य वचसः प्रवर्तकता । वाचः कस्याश्चित्तदनुत्पादकतेति ॥११८१।।
कायकिरियाणियत्ती काउस्सग्गो सरीरगे गुत्ती ।
हिंसादिणियत्ती वा सरीरगुत्ती हवदि दिट्ठा ॥११८२॥ 'कायकिरियाणियत्ती' कायस्यौदारिकादेः शरीरस्य या क्रिया तस्या निवृत्तिः 'सरीरंगे गुत्ती' शरीरविषया गुप्तिः कायगुप्तिरिति यावत् । आसनस्थानशयनादीनां क्रियात्वात तासां चात्मना 'प्रवर्तित्वात् कथमात्मनः कायक्रियाभ्यो व्यावृत्तिः । अथ मतं, कायस्य पर्यायः क्रिया, कायाच्चान्तरमात्मा ततो द्रव्यान्तरपर्यायात द्रव्यान्तरं तत्परिणामशून्यं तथाऽपरिणतं व्यावृत्तं भवतीति कायक्रियानिवत्तिरात्मनो भण्यते । सर्वेषामेवात्मनामित्थं कायगुप्तिः स्यात् न चेष्टेति ।
अत्रोच्यते-कायस्य सम्बन्धिनी क्रिया कायशब्देनोच्यते । तस्याः कारणभूतात्मनः क्रिया कायक्रिया तस्य निवृत्तिः । 'काउस्सग्गो' कायोत्सर्गः शरीरस्याशुचितामसारतामापन्निमित्ततां चावेत्य तद्गतममतापरिहारः कायगुप्तिः । अन्यथा शरीरमायुः शृङ्खलावबद्धं त्यक्तुं न शक्यते इत्यसम्भवः कायोत्सर्गस्य । धातूनामनेकार्थत्वात् गुप्तिनिवृत्तिवचनं इहेति सूत्रकाराभिप्रायोऽन्यथा 'कायकिरियाणिवत्ती सरीरगे गुत्ती' इति कथं ब्रूयात् । कायोत्सर्गग्रहणेन निश्चलता भण्यते । यद्येवं कायकिरियाणिवत्ती इति न वक्तव्यं, कायोत्सर्गः काय
समितिमें महान् अन्तर है। मौन वचन गुप्ति है ऐसा कहने पर गुप्ति और समितिका भेद स्पष्ट हो जाता है । समिति योग्य वचनमें प्रवृत्ति कराती है। और गुप्ति किसी वचनकी उत्पादक नहीं है ॥११८१॥
गा०-टो०-काय अर्थात् औदारिक आदि शरीरकी जो क्रिया है उसकी निवृत्ति कायगुप्ति है।
शङ्का-बैठना, ठहरना, सोना आदि क्रियाएँ हैं । और वे क्रियाएं आत्माके द्वारा प्रवर्तित हैं। तब आत्मा कायकी क्रियाओंसे कैसे निवृत्त हो सकता है। यदि कहोगे कि क्रिया कायकी पर्याय है और कायसे आत्मा भिन्न है। अतः द्रव्यान्तर कायकी पर्यायसे द्रव्यान्तर आत्मा उस पर्यायसे रहित होनेसे कायकी पर्यायरूप परिणत नहीं होता अतः उससे वह निवृत्त है और इसीको आत्माकी कायकी क्रियाओंसे निवृत्ति कही है। तो इस प्रकारसे सभी आत्माओंके कायगुप्तिका प्रसंग आता है।
__ समाधान-कायशब्दसे कायसम्बन्धी क्रिया कही है। उसकी कारणभूत आत्माकी क्रिया कायक्रिया है और उसकी निवृत्ति कायगुप्ति है। अथवा कायोत्सर्ग अर्थात् शरीरकी अपवित्रता, असारता और आपत्तिमें निमित्तपना जानकर उससे ममत्व न करना कायगुप्ति है। अन्यथा शरीर तो आयुकी सांकलसे बँधा है। जब तक आयु है शरीरका त्याग नहीं किया जा सकता। यदि शरीर त्यागको कायोत्सर्ग कहेंगे तो कायोत्सर्ग असम्भव हो जायगा। धातुओंके अनेक अर्थ होते हैं अतः यहाँ गुप्तिका अर्थ निवृत्ति है ऐसा गाथासूत्रकार आचार्यका अभिप्राय है। यदि ऐसा न होता तो 'कायक्रिया निवृत्ति शरीर गुप्ति है' ऐसा कैसे कहते ।
१. प्रवतर्कत्वात् कथमात्मनः कार्या क्रियाम्यो-आ० मु० ।
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