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भगवती आराधना
'थेरो' स्थविरः, बहुश्रुतः, प्रत्ययितः, प्रमाणभूतः गणधरः, तपस्वीत्येवं प्रकारः । 'अचिरेण' चिरकालमन्तरेण | 'लभदि दोसं' अयशो लभते । 'महिलावरगम्मि' युवतिवर्गे । 'वीसत्थो' विश्वस्तः ॥१०९२॥ किं पुण तरुणा अबहुस्सुदा य सहरा य विगदवेसा य । महिलासंसग्गीए णट्ठा अचिरेण होहति ॥ १०९३ ।।
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'किं पुण तरुणा' सयौवनाः, अबहुश्रुताः, स्वैरचारिणः, विकृतवेषाश्च युवतिसंसर्गेण झटिति नष्टा न भवन्ति ? किं पुनर्भवन्त्येवेति यावत् ॥ १०९३॥
गहु इणिगाए संसग्गीए दु चरणपब्भट्ठो ।
गणिया संसग्गीय य कूववारो तहा णट्टो || १०९४॥
'सगडो हुँ' सगडा नामधेयः । 'जइणिगाए संसग्गीए' जइणिगासंज्ञायाः संसर्गेण । 'चरणपन्भट्ठो' चारित्राभ्रष्टः । ' गणिकासंसग्गीए' गणिकागोष्ठधा । 'कूवयारो वि' कूपारनामक: । 'तहा गट्ठी' तथा चारित्रान्नष्टः ॥ १०९४॥
vat परासरो सच्चाईय रायरिसि देवपुत्तो य । महिलारूवालोई ट्ठा संसत्तदिट्ठीए || १०९५ ।।
'रुद्दो परासरो' रुद्रः पराशरः सात्यकिः, राजर्षिर्देवपुत्रश्च युवतिरूपावलोकिनः । संसक्तया दृष्ट्या
नष्टाः ॥ १०९५ ॥
जो महिलासंसग्गी विसंव दट्ठूण परिहरइ णिच्चं । णित्थरइ बंभचेरं जावज्जीवं अकंपा सो ॥। १०९६ ॥
जो महिलायाः स्त्रीणां संसर्ग विषमिव दृष्ट्वा नित्यं परिहरति । असौ ब्रह्मचर्यं उद्वहति यावज्जीवं निश्चलः || १०९६ ॥
गा० – वृद्ध, बहुश्रुत, सबका विश्वास भाजन, सबके लिए प्राणभूत, गणधर और तपस्वी मनुष्य भी यदि स्त्रियोंके विषय में विश्वस्त है उनसे संसर्ग रखता है तो वह भी शीघ्र ही अपयशका भागी होता है ॥ १०९२||
गा० - तब जो तरुण हैं, अल्पज्ञानी हैं, स्वच्छन्द और विकार पैदा करनेवाला वेष रखते हैं वे स्त्रियोंके संसर्गसे शीघ्र ही नष्ट क्यों न होंगे ? अवश्य ही होंगे ॥। १०९३ ॥
गा०— शकट नामक मुनि जैनिका नामक ब्राह्मणी के संसर्गसे चारित्रसे भ्रष्ट हुए । और कूपार नामक मुनि वेश्याकी संगतिके कारण चारित्र से भ्रष्ट हुए ।। १०९४||
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गा० - रुद्र, पाराशर ऋषि, सात्यकि मुनि, राजर्षि, और देवपुत्र ये स्त्रीके रूपको देखने में आसक्त होकर भ्रष्ट हुए । १०९५ ||
गा०-- जो पुरुष स्त्रीके संसर्गको विषकी तरह देखकर नित्य ही उससे बचता है वह निश्चल होकर जीवनपर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करता है ।। १०९६ ||
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