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विजयोदया टीका
५७५ व्रतानि न स्युः । परिग्रहस्य च त्यागे तिष्ठन्ति निश्चलान्यहिंसादीनि ॥१११९॥
अपि चाशभपरिणामसंवरणमन्तरेण प्रत्यग्रकर्मोपचयः कथं निवार्यते । प्रत्यग्रकर्मोपचयेन कर्मणां सैवानन्तकाला संसृतिरित्येतच्चेतसि कृत्वा परिग्रहग्रहणभाविनोऽशुभान्परिणामानाचष्टे
सण्णागारवपेसुण्णकलहफरुसाणि णिट्ठरविवादा ।
संगणिमित्तं ईसासूयासल्लाणि जायंति ॥११२०।। 'सण्णागारवपेसुण्ण' परिग्रहसंज्ञा 'तत्सन्निधौरवं च जायते सपरिग्रहस्य । पिशुनयति सूचयति परदोषानिति पिशुनस्तस्य कर्म पैशुन्यं । परिग्रहवानात्मनैव स्वधनपरिपालनेच्छुः परस्य दोषान्प्रकाश्य तदीयं धनं हारयति, कलह वा करोति । धनार्थ पुरुषं वचो वदति विवाद वा कुर्यात्, ईष्यासूयाशल्यानि च जायन्ते । अयमेतस्मै प्रयच्छति न मह्यं इति सङ्कल्प ईर्ष्या । परस्य धनवत्तासहनमसूया ॥११२०॥
कोधो माणो माया लोभो हास रइ अरदि भयसोगा ।
संगणिमित्तं जायइ दुगुच्छ तह रादिभत्तं च ॥११२१।। 'तहा कोधो माणो' क्रोधः परिग्रहतरतस्य परिणामो दाने जायते । धन्योऽहमिति गवितो भवति । परो धनं दृष्ट्वा गलातीति तन्निग्रहनकरणान्माया च भवति । काकणिलाभे कापणं वाञ्छति । तल्लब्ध्या कार्षापणसहस्रादिकमिति लोभस्य हेतुर्द्रव्यलाभः । निर्द्रविणं लोको हसतीति हासस्यापि कारणं । द्रव्यमात्मीयं पश्यतः तत्रानुरागो रतिः । तद्विनाशे अरतिः । तदन्ये हरन्ति इति भयं । शोको वा। जुगुप्सते
करता है, अपरिमित तृष्णा रखता है और मैथुन करता है । ऐसा करनेपर अहिंसा आदि व्रत नहीं हो सकते । किन्तु पग्रिहका त्याग करनेपर अहिंसादिव्रत स्थिर रहते हैं ॥१११९।। .
___ तथा अशुभ परिणामोंके संवरके विना नवीन कर्मोंका संचय कैसे रोका जा सकता है ? और नवीन कर्मोंका संचय होनेसे वही अनन्तकालीन संसार है। ऐसा चित्तमें स्थिर करके ग्रन्थकार परिग्रहके ग्रहणसे होनेवाले अशुभ परिणामोंको कहते हैं
गा-टो०-परिग्रहीके परिग्रह संज्ञा और परिग्रहमें आसक्ति होती। वह दूसरेके दोषोंको इधर-उधर कहता है। परिग्रही पुरुष दूसरेका धन लेनेके लिए दूसरोंके दोष प्रकट करके उसका धन हरता है। कलह करता है। धनके लिए कठोर वचन बोलता है, झगड़ा करता है। ईर्षा
और असूया करता है। यह व्यक्ति अमुकको तो देता है मुझे नहीं देता, इस प्रकारके संकल्पको ईर्षा कहते हैं । दूसरेके धनी होनेको न सहना असूया है ॥११२०॥
गा-टी०-दूसरेके द्वारा अपना धन ग्रहण किये जाने पर क्रोध होता है। मैं धनाढ्य है ऐसा गर्व होता है । दूसरा व्यक्ति मेरा धन देखकर उसे ले लेगा, इस भयसे उसे छिपाता है अतः माया होती है । एक कौड़ीका लाभ होने पर एक रुपया आदिका लाभ चाहता है । या धनका लाभ होनेसे लोभ होता है। धनी निर्धनको देखकर हँसता है अतः परिग्रह हास्यका भी कारण है। अपना द्रव्य देखकर उससे अनुराग होता है। अतः परिग्रह रतिका कारण है। द्रव्य का नाश होने पर अरति होती है। उसे दूसरे हर लेंगे यह भय होता है । धन हर लेने पर शोक होता है।
१. संधिगौर-ज०।
२. परिणामादाने ज० । परिणामोऽदाने मु० ।
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