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भगवती आराधना
चारित्रमन्त्रविद्यषधिरहितो विषयारण्ये रागादिस बहुले सावधानोऽपि भवेत् ॥ ११६३।।
रागो हवे मणुणे गंथे दोसो य होइ अमणुण्णे । गंथच्चारण पुणो रागद्दोसा हवे चत्ता ॥। ११६४ ॥
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रागद्वेषयोः कर्मणां मूलयोर्निमित्तं परिग्रहः, परिग्रहत्यागे रागद्वेषौ एव त्यक्तौ भवतः । बाह्यद्रव्यं मनसा स्वीकृतं रागद्वेषयोर्बीजं, तस्मिन्नसति सहकारिकारणे न च कर्ममात्राद्रागद्वेषवृत्तिर्यथा सत्यपि मृत्पिण्डे दण्डाद्यनन्त कारणवैकल्ये न घटोत्पत्तिर्यथेति मन्यते ॥। ११६४ ॥
कर्मणां निर्जरणे उपायः परीषहसहनं । तथा चोक्तं 'पूर्वोपात्तकर्मनिर्जरार्थं परिषोढव्याः परीषहा ः ' [त०सू० ९८] ते च परीषहाः षोढा भवन्ति ग्रन्थचेलप्रावरणादिकं त्यजतेति व्याचष्टेसी हदसमसयादियाण दिण्णो परीसहाण उरो । सीदादिनिवारणए गंथे निययं जहंतेण ॥। ११६५ ।।
"सीदुण्हदं समसयादियाण' । ननु च दुःखोपनिपाते संक्लेशरहितता परीषहजयः, न तु शीतोष्णादयो । ते आत्मपरिणामाः । अनात्मपरिणामाश्च बन्धसंवर निर्जरादीनामुपायो न भवन्ति । योऽनात्मपरिणामो चारित्ररूप मंत्र विद्या और औषधिसे रहित है अर्थात् जिसे इन सबकी प्राप्ति अभी नहीं हुई है वह रागद्व ेषरूप सर्पों से भरे विषयरूप वनमें सावधान रहता है ||११६३॥
विशेषार्थ - इसका भाव यह है कि मनमें बाह्य द्रव्यके प्रति अनुराग रागद्वेषको उत्पन्न करनेवाले मोहनीयकर्मका सहकारी कारण है त्याग करनेपर रागद्वेषरूप प्रवृत्ति नहीं होती । उसके अभाव में नवीन कर्मबन्ध अतः परिग्रहका त्याग ही मोक्षका उपाय है ||११६३॥
अतः उसका नहीं होता ।
गा० - मनोज्ञ विषय में राग होता है और अमनोज्ञ विषयमें द्व ेष होता है । अतः परिग्रहका त्याग करनेसे राग-द्वेषका त्याग हो जाता है | ११६४ ||
टी० - कर्मबन्धके मूल रागद्व ेष हैं और रागद्वेषका निमित्त परिग्रह है । परिग्रहको त्यागने पर रागद्वेषका त्याग हो जाता है । बाह्य द्रव्यको मनसे स्वीकार करना ही रागद्व ेषका बीज है । उस सहकारी कारणके अभाव में केवल कर्ममात्रसे रागद्व ेष नहीं होते । जैसे मिट्टी के होने पर भी दण्ड आदि सहायक कारणोंके अभाव में घटकी उत्पत्ति नहीं होती ॥। ११६४||
परीषोंका सहना कर्मोंकी निर्जराका उपाय है। कहा भी है- पूर्व में बाँधे गये कर्मोंकी निर्जराके लिए परीषह सहना चाहिए। वस्त्रादि परिग्रहका त्याग करनेसे उन परीषहोंका सहना होता है, यह कहते हैं
गा० - टी० - शीत आदिका निवारण करने वाले वस्त्र आदि परिग्रहों को जो नियमसे त्याग देता है वह शीत, उष्ण, डांस मच्छर आदि परीषहोंको सहनेके लिए अपनी छाती आगे कर देता है ।
शंका - दुःख आने पर संक्लेश न करना परीषह जय है । शीत उष्ण आदि परीषह जय नहीं हैं, क्योंकि वे आत्माके परिणाम नहीं हैं । और जो आत्माके परिणाम नहीं हैं वे बन्ध, संवर,
१. विसए आ० मु० ।
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