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भगवती आराधना
स्वाध्यायध्यानाख्ययोस्तपसो विघ्नकारी परिग्रहस्तदुभयं चान्तरेण न संवरनिर्जरे । तयोरभावे कुतो निरवशेषकर्मापायो भवतीति कथयति -
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गंथस्स गहणरक्खणसारवणाणि णियदं करेमाणो । विक्खित्तमणो ज्झाणं उवेदि कह मुक्कसज्झाओ ।। ११५८ ।।
'गंथस्स गणरक्खण' परिग्रहादानं, तद्रक्षणं, तत्संस्कारं च नित्यं कुर्वन् व्याक्षिप्तचित्तः कथं शुभध्यानं कुर्यात् विमुक्तस्वाध्यायः । एतदुक्तं भवति व्याक्षिप्तचित्तस्य न स्वाध्यायः असति तस्मिन्वस्तुयाथात्म्याविदुषः ध्येयैकनिष्ठं ध्यानं कथमिव वर्तते ॥ ११५८ ।।
परभवव्याप्यं दोषं परिग्रहमुखायातमुपदर्शयति-
थे घडिददिओ होइ दरिदो भवेसु बहुगे ।
होदि कुणतो णिच्चं कम्मं आहारहेदुम्मि ।। ११५९ ।।
'गंथेसु घडिदहिदओ' ग्रन्थासक्तचित्तः बहुषु भवेषु दरिद्रो भवति । आहारमात्रमुद्दिश्य नीचकर्मकारी भविष्यति । शिविकोद्वहनं, उपानद्वेचनं, पुरीषमूत्राद्यपनयनं इत्यादिकं नीचं कर्म ॥११५९।।
विविहाओ जायणाओ पावदि परभवगदो वि धणहेदुं । लुद्धो पंपागहिदो हाहाभूदो किलिस्सदि य ।। ११६०॥
'विविहाओ जायणाओ पावदि' विविधा यातनाः प्राप्स्यति । परभवगतोऽपि धननिमित्तं लुब्धः आशया भूषित करके मनुष्य दूसरेमें अभिलाषा उत्पन्न करता है और इस तरह उसके शरीरके संसर्गसे उत्पन्न अनुरागका इच्छुक होकर उसका सेवन करता है अतः परिग्रहको स्वीकार करनेवालेके इन्द्रिय सुखकी अभिलाषा सिद्ध होती है ।। ११५७।।
परिग्रह स्वाध्याय और ध्यान नामक तपमें विघ्न पैदा करता है तथा स्वाध्याय और ध्यानके विना संवर और निर्जरा नहीं होती । और संवर निर्जराके अभाव में समस्त कर्मो का विनाश कैसे हो सकता है ? यह कहते हैं
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गा० - टी० - परिग्रहको ग्रहण, रक्षण और उसके सार सम्हालमें सदा लगा रहनेवाले पुरुषका मन उसो में व्याकुल रहता है । तब वह स्वाध्याय छूट जानेसे शुभध्यान कैसे कर सकता है । कहनेका अभिप्राय यह है कि जिसका चित व्याकुल रहता है वह स्वाध्याय नहीं कर सकता। और स्वाध्यायके अभाव में वस्तुके यथार्थस्वरूपको न जानते हुए ध्येयमें एकनिष्ठ ध्यान कैसे हो सकता है ।। ११५८॥
परिग्रहसे उत्पन्न हुआ दोष भव भव में दुःख देता है यह कहते हैं.
गा०-जिसका चित्त परिग्रह में आसक्त होता है वह भव भव में दरिद्र होता है । केवल पेट भरने के लिए उसे पालकी उठाना, जूते बेचना, टट्टी पेशाब साफ करने आदिका नीच काम करना पड़ता है | ११५९||
गा० - परिग्रह में आसक्त पुरुष पर भव में भी धनके लिए अनेक कष्ट उठाता है । लोभके
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