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भगवती आराधना 'सोयदि विलवदि' शोचति, विलपति, क्रन्दति नष्टे परिग्रहे विषण्णश्च भवति । चिन्तां करोति । पिबत्यन्तस्सन्तापाज्जलादिकं, वेपते उत्कण्ठितो भवति ॥११४९॥
डज्झदि अंतो पुरिसो अप्पिये गढे सगम्मि गंथम्मि ।
वायावि य अक्खिप्पड बुद्धी विय होइ से मूढा ॥११५०॥ 'डज्झवि' दह्यते अन्तः पुरुष आत्मीये नष्टे परिग्रहे । वागपि नश्यति बुद्धिरपि मन्दा भवति ।।११५०।।
उम्मत्तो होइ णरो पडे गथे गहोवसिट्ठो वा ।
घट्टदि मरुप्पवादादिएहिं बहुधा गरो मरिदुं ॥११५१।। 'उम्मत्तो होइ णरो' उन्मत्तो भवति नरः। नष्टे परिग्रहे ग्रहगृहीत इव चेष्टते मरुत्प्रतापादिभिर्मतुं ॥११५१॥
चेलादीया संगा संसज्जंति विविहेहिं जंतूहिं ।
आगंतुगा वि जंतू हवंति गंथेसु सण्णिहिदा ।।११५२।। 'चेलादिगा' संगाश्चेलप्रावरणादयः परिग्रहाः । 'संसज्जति' सन्मूर्च्छनामुपयान्ति । 'विविहेहि जंतूहि' नानाप्रकारैर्जन्तुभिः । 'आगंतुगा वि जंतू' आगन्तुकाश्च जन्तवः । 'गंथेसु सणिहिदा भवंति' ग्रन्थेषु सन्निहिता भवन्ति यूकापिपीलिकामत्कुणादयः । धान्येषु कोटादयः गुडपूपादिषु रसजाः तेषामादाने ॥११५२॥
आदाणे णिक्खेवे 'सरेमणे चावि तेसि गंथाणं ।
उकस्सणे वेकसणे फालणपप्फोडणे चेव ।।११५३।। आदाने, निक्षेपे, संस्करणे, बहिर्नयने, बन्धने, मोचने, तेषां ग्रन्थानां पाटने विधूनने च ॥११५३॥
छेदणबंधणवेढणआदावणधोव्वणादिकिरियासु । संघट्टणपरिदावणहणणादी होदि जीवाणं ॥११५४।।
गा०-वह शोक करता है, विलाप करता है, चिल्लाता है, खेद-खिन्न होता है । चिन्ता करता है । अन्तरंगमें सन्ताप होनेसे जलादि पीता है, काँपता है, उत्कंठित होता है ।।११४९।।
गा० .. अपने परिग्रहके नष्ट होनेपर पुरुष अन्दर ही अन्दर जला करता है। उसकी वाणी नष्ट हो जाती है तथा बुद्धि भी मूढ़ हो जाती है ।।११५०।।
गा-परिग्रहके नष्ट होनेपर मनुष्य पिशाचसे पकड़े हुए मनुष्यकी तरह उन्मत्त हो जाता है । और प्रायः पर्वत आदिसे गिरकर मरनेकी चेष्टा करता है ॥११५१।।
गा०-वस्त्रादि परिग्रहमें नाना प्रकार सम्मूर्च्छन जीव उत्पन्न हो जाते हैं। बाहरसे आकर भी जूं, चींटी, खटमल वगैरह बस जाते हैं। धान्यमें कीड़े लग जाते हैं। गुड़ आदि संचय करनेपर उसमें भी जीव पैदा हो जाते हैं ॥११५२।।
गा०-परिग्रहके ग्रहण करने, रखने, संस्कार करने, बाहर ले जाने, बन्धन खोलने, १. पसारणे-अ० आ० । २. फंसण-अ० आ० ।
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