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भगवती आराधना हम्मदि मारिज्जदि वा बज्झदि रंभदि य अणवराधो वि ।
आमिसहेर्नु घण्णो खज्जदि पक्खीहिं जह पक्खी ॥११४०।। 'हम्मदि' आहन्यते । 'मारिज्जदि' मार्यते, बध्यते रुध्यते चानपराधोऽपि । आमिषनिमित्तं लम्पटः खाद्यते यथा पक्षिभिः पक्षी गृहीताहारः ।।११४०॥ ।
मादुपिदुपुत्तदारेसु वि पुरिसो ण उवयाइ वीसंभं ।
गंथणिमित्तं जग्गइ रक्खंतो सव्वरत्तीए ॥११४१।। 'मादुपिदुपुत्तदारेसु वि' विश्वसनोयेष्वपि मात्रादिषु विश्रंभं नोपयाति । जागति सर्वरात्रीः पालयन् ॥११४१॥
सव्वं पि संकमाणो गामे णयरे घरे व रणे वा ।
आधारमग्गणपरो अणप्पवसिओ सदा होइ ॥११४२।। 'सव्वं पि संकमाणों' सर्वमपि शङ्कमानः ग्रामे, नगरे, गृहे, अरण्ये वा, आधारान्वेषणपरोऽनात्मवशः सदा भवति ॥११४२।।
गंथपडियाए लुद्धो धीराचरियं विचित्तमावसधं ।
णेच्छदि बहुजणमज्झे वसदि य सागारिगावसए ॥११४३।। 'गंथपडिगाए लुद्धो' ग्रन्थनिमित्तं लुब्धो धोरैर्वाचरितं विविक्तमावसथं नेच्छति । बहुजनमध्ये वसति । गृहस्थानां वा वेश्मनि ॥११४३॥
सोदूण किंचि सदं सग्गंथो होइ उढिदो सहसा ।
सव्वत्तो पिच्छंत्तो परिमस द पलादि मुज्झदि य ।।११४४।। गा०-जैसे मांसके लिए मांसका लोभी पक्षी दूसरे मांस ले जाते पक्षीको मारता काटता है वैसे ही लोभी धनाढ्य मनुष्य विना अपराधके ही दूसरोंके द्वारा धाता जाता है, मारा जाता है और पकड़ा जाता है ॥११४०।।
गा०-परिग्रहके कारण मनुष्य माता, पिता, पुत्र और पत्नीका भी विश्वास नहीं करता। और रातभर जागकर परिग्रहकी रखवाली करता है ।।११४१।।
गा०-वह सबको शंकाकी दृष्टिसे देखता है कि ये मेरा धन हरनेवाले हैं। और गाँव, नगर, घर अथवा वनमें किसीका आश्रय खोजता फिरता है इस तरह वह सदा पराधीन रहता है ॥११४२।।
गा०-वह परिग्रहका लोभी धीर पुरुषोंके रहने योग्य एकान्त स्थानमें रहना पसन्द नहीं करता । वह बहुत जनसमुदायके मध्य गृहस्थोंके घरमें रहना पसन्द करता है ॥११४३।।
गा० --किंचित् भी शब्द सुनकर परिग्रही एकदम उठकर सब ओर देखता है, अपने धनको टटोलता है और लेकर भागता है अथवा मूर्छित हो जाता है ॥११४४।।
१. कक्खंतो-आ० मु०। २. प्रलयन्-आ० मु० ।
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