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विजयोदया टीका
५६७ सव्वम्मि इंत्थिवग्गम्मि अप्पमत्तो सदा अबीभत्थो ।
बंभं निच्छरदि वदं चरित्तमूलं चरणसारं ।।१०९७॥ 'सव्वम्मि' सर्वस्त्रोवर्गे । अप्रमत्तः सदा अविश्वस्तः, ब्रह्मव्रतमुद्दहति चारित्रस्य मूलं सारं च ॥१०९७॥
कि मे जंपदि किं मे पस्सदि अण्णो कहं च वट्टामि ।
इदि जो सदाणुपेक्खइ सो दढवभव्वदो होदि ॥१०९८।। 'कि मे जंप्पदि' किं जल्पति मां जनोऽन्यः । किं पश्यति, कीदृशी वा मम वृत्तिरिति यः सदानुप्रेक्षते असौ दृढब्रह्मचर्यव्रतो भवति ।।१०९८॥
मज्झण्हतिक्खसूरं व इत्थिरूवं ण पासदि चिरं जो ।
खिप्पं पडिसंहरदि दिढि सो णिच्छरदि बंभं ॥१०९९।। 'मज्झण्हतिक्ससूरं व' मध्यान्हे स्थितं तीक्ष्णमादित्यमिव स्त्रीणां रूपं चिरं यो न पश्यति । क्षिप्रमुपसंहरति दृष्टि यः स निस्तरति ब्रह्मचर्य ।।१०९९॥
एवं जो महिलाए सर्वे रूवे तहेव संफासे । ___ण चिरं जस्स सज्जदि दुमणं खु णिच्छरदि सो बंभं ॥११००॥ ‘एवं जो महिलाए' एवं यो युवतिशब्दे, रूपे, संस्पर्श च चिरं मनो न संधत्तेऽसौ ब्रह्म निस्तरति । 'संसग्गी' ॥११००॥
इह परलोए जदि दे मेहुणविस्सुत्तिया हवे जण्हु ।
तो होहि तमुवउत्तो पंचविधे इत्थिवेरग्गे ।।११०१।। 'इह परलोए' इह परलोके च यदि मैथुनपरिणामो भवेत् । पंचविधे स्त्रीवैराग्ये त्वमुपयुक्तो भव । तदुपयोगाद्विनश्यत्यसावशुभतमः परिणाम इति सूरेरुपदेशः ॥११०१।।
गा०-जो पुरुष सम्पूर्ण स्त्री वर्गमें प्रमाद रहित है और सदा स्त्रियोंका विश्वास नहीं करता। वह ब्रह्मचर्य व्रतका पालन करता है जो ब्रह्मचर्य व्रत चारित्रका मूल और उसका सार है ।।१०९७।।
गा०-अन्य लोग मेरे सम्बन्धमें क्या कहते हैं ? मुझे किस दृष्टिसे देखते हैं ? मेरी प्रवृत्ति कैसी है ? ऐसा जो सदा विचार करता है उसका ब्रह्मचर्यव्रत दृढ़ होता है ।।१०९८॥
गा०--जो मध्याह्नकालके तीक्ष्ण सूर्यकी तरह स्त्रीके रूपकी और देर तक नहीं देखता और शीघ्र ही अपनी दृष्टिको उसकी ओरसे हटा लेता है वह ब्रह्मचर्यका निर्वाह करता है ॥१०९९।।
गा०—इस प्रकार स्त्रीके शब्द, रूप और स्पर्शमें जिसका मन चिरकाल तक नहीं ठहरता, वह ब्रह्मचर्यका पालक होता है ॥११००॥
इस प्रकार स्त्री संसर्गके दोषोंका कथन किया।
गा०-टो०--हे क्षपक ! यदि इस लोक और परलोकमें तुम्हारे मैथुन सेवनके परिणाम हों तो पाँच प्रकारके स्त्री वैराग्यमें मनको लगाओ। अर्थात् स्त्रीकृत दोष, मैथुनके दोष, स्त्री
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