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भगवती आराधना
उदय
जायवड्ढि
उदएण ण लिप्पदे जहा पउमं ।
तह विसएहिं ण लिप्पदि साहू विसएसु उसिओ वि ।। ११०२ ।। 'उदयम्मि जायवढिय' उदके जातं परिवृद्धं च यथा पद्मं उदकेन न लिप्यते । तथा न लिप्यते विषयः साधुर्विषयेषु वर्तमानोऽपि ।। ११०२ ।।
उरगाहिंतस्सुदधिं अच्छेरमणोल्लणं जह जलेण ।
तह विसयजलमणोमच्छेरं विसयजलहिम्मि | ११०३ ।।
'ओग्गाहंतस्सुदधि' अवगाहमानस्योदधि आश्चर्यं यथा जलेनास्पर्शनं । तथा विषयजलेनार्द्रचित्तता आश्चर्यं विषयजलधिमध्यमध्यासीनस्य ॥। ११०३ ॥
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मायागहणे बहुदोसमात्रए अलियदुमगणे भीमे ।
असुतपिल्ले साहू ण विष्पणस्संति इत्थवणे ||११०४ ।।
'मायागहणे' यथा गहनं परेषां दुःप्रवेशं एवं मायापि परैर्दुरधिगमेति मायापि गहनमित्युच्यते । मायागहनं यस्मिन्वने तन्मायागहनं तस्मिन् । 'बढ्दोससावदे' वहवो दोपा बहुदोपाः असूया, पिशुनता, चपलता, भीरुता, नितरां प्रमत्तता चेत्येवमादयस्ते श्वापदा यस्मिन् । 'अलिगदुमगणे' यथा द्रुमो महाननेकशाखोपशाखाकुलश्च तद्वद्व्यलीकता द्रुमगणो यस्मिन् । भीमे भयंकरे । 'अशुचित णिल्ले' अशुचितृणकुले । यतयो न विप्रणश्यन्ति स्त्रीवने ॥। ११०४ ।।
सिंगारत रंगाए विलासवेगाए जोव्वणजलाए ।
विहसियफेणाए मुणी णारिणईए ण बुज्झति ॥ ११०५।।
संसर्ग के दोष, शरीर की अशुचिता और वृद्धसेवाका चिन्तन करो। ऐसा करनेसे तुम्हारे अति अशुभ परिणाम नष्ट होंगे ॥११०१ ॥
गा० - जैसे जल में उत्पन्न हुआ और जलमें ही बढ़ा कमल जलसे लिप्त नहीं होता । वैसे ही विषयोंके मध्यमें रहते हुए भी साधु विषयोंसे लिप्त नहीं होता ।। ११०२॥
गा०—जैसे समुद्रका अवगाहन करके भी समुद्रके जलसे शरीरका निर्लिप्त रहना आश्चर्यकारी है | वैसे ही विषयरूपी समुद्रके मध्यमें रहकर विषयरूपी जलसे चित्तका न भींगना आश्चर्यकारी है ॥ ११०३ ॥
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गा० - टी० - - यह स्त्री रूपी वन मायाचारसे गहन है । जैसे गहन वनमें दूसरोंका प्रवेश करना कठिन होता है वैसे ही मायाको भी जानना कठिन है इसलिए मायाको गहन कहा है । अतः स्त्रीरूपी वनमें माया ही गहनवेल आदि झाड़ियोंका समूह है । वनमें हिंसक जन्तु रहते हैं । स्त्रीरूप वनमें परनिन्दा, चुगली, चंचलता, भीरुता, प्रमत्तपना आदि बहुदोषरूपी हिंसक जन्तुओंका आवास है । वनमें वृक्ष होते हैं जो अनेक शाखा उपशाखाओंसे फैले रहते हैं । स्त्रीरूपी वनमें झूठरूपी वृक्ष अपने भेद प्रभेदोंके साथ रहता है । वनकी तरह स्त्रीरूप वन भी भयंकर है । वनमें घास फूँस रहता है । स्त्री रूपी वनमें अशुचि शरीर के अंग-उपांग ही घास फूस हैं । ऐसे स्त्रीरूपी वनमें साधु नहीं भटकता ॥ ११०४ ||
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