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विजयोदया टीका
५५९ वृद्धसेवानिरूपणाय उत्तरः प्रबन्धः थेरावा तरुणा वा इत्यादिकः । शीलवृद्धता भवति न केवलेन वयसा इत्याचष्टे
थेरा वा तरुणा वा वुडढा सीलेहिं होंति वुड्ढीहिं ।
थेरा वा तरुणा वा तरुणा सीलेहिं तरुणेहिं ।।१०६४|| 'थेरा वा तरुणा वा' स्थविरास्तरुणाश्च । 'वुड्ढा होंति' वृद्धा भवन्ति । 'सोलेहिं वुड्ढेहि' शीलैः प्रवृद्धः । क्षमा, मार्दवं, ऋजुत्वं, सन्तोष इत्यादिकं शीलशद्वेनोच्यन्ते । 'थेरा वा तरुणा वा' स्थविरास्तरुणाश्च । तरुणा एव । 'सोलेहि तहि' तरुणः शीलैः । एतेन शीलवृद्धा इह वृद्धशब्देन गृहीताः । एतेषां सेवा वृद्धसेवेति कथितं भवति । वृद्धगुणानां सेवातः स्वयमपि गुणोत्कर्षमुपैतीति मन्यते ॥१०६४।।
अपि 'चेहवत्यादिनामवयोवृद्धानामपि संसर्गो गुणवान्यतस्तेऽपि वयसैव' मन्दीभूतकामरतिदर्पक्रीडा इति वदति
जह जह वयपरिणामो तह तह णस्सदि णरस्स बलरूवं ।
मंदा य हवदि कामरदिदप्पकीडा य लोभे य ॥१०६५।। 'जह जह वयपरिणामो' अतिक्रामति यथा यथा वयःपरिणामो युवत्वमध्यमत्वसंज्ञितः । ‘णरस्स परिणामो' प्राणिनः परिणामः नश्यति । 'तध तध से तथा तथा तस्य 'मंदा हवंति' मन्दा भवन्ति । 'कामरदिदप्पकोडा' काम्यन्त इति कामा विषयास्तत्र रतिदर्पः, क्रीडा, 'लोभो य' लोभश्च । मन्दविषयरत्यादिपरिणामेन वृद्धेन सह संवासात् स्वयमेवापि मन्दकामादिपरिणामो भवतीति भावः ॥१०६५॥
खोभेदि पत्थरो जह दहे पडतो पसण्णमवि पंकं । खोभेइ तहा मोहं पसण्णमवि तरुणसंसग्गी ॥१०६६।।
आगे वृद्धसेवाका कथन करते हुए कहते हैं कि केवल अवस्थासे वृद्धता नहीं होती
गा०-टो०-अवस्थासे वृद्ध हो अथवा तरुण हो, जिसके शील अर्थात् क्षमा, मार्दव, आर्जव, सन्तोष आदि बढ़े हुए हैं वे वृद्ध हैं। तथा अवस्थासे वृद्ध हों अथवा तरुण हों जिनके शील तरुण हैं-वृद्धिको प्राप्त नहीं हैं वे तरुण हैं। अतः यहाँ जो शीलसे वृद्ध हैं वृद्ध शब्दसे उनका ग्रहण किया है। उनकी सेवा वृद्ध सेवा है, यह कथनका अभिप्राय है । गुणोंसे वृद्ध पुरुषोंकी सेवा करने में स्वयं भी मनुष्य गुणोंमें उत्कर्षको प्राप्त होता है ।।१०६४॥
___आगे कहते हैं कि अवस्थासे वृद्धोंका संसर्ग भी लाभकारी है क्योंकि अवस्थाके कारण ही उनका कामज्वर आदि मन्द हुआ है
गा०-जैसे-जैसे मनुष्यको युवावस्था, मध्यावस्था बीतती जाती है वैसे-वैसे उसकी कामविषयक रति, मद, लोभ आदि मन्द होते जाते हैं। इसका भाव यह है कि जिसका कामभावरूप परिणाम मन्द होता है उस वृद्धके साथ रहनेसें मनुष्य स्वयं भी मन्द कामभाव आदिसे युक्त होता है ॥१०६५॥
१. चेह यत्यादीनामपि संसर्गों गुणवान्यतस्तेपि तपसव-आ० मु० । २. तपसैव सम्यग्भूत काम-ज०॥
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