________________
भगवती आराधना
'खोभेदि' क्षोभयति । 'पत्थरो' शिला महती । 'जह' यथा । 'दहे' हदे 'पडतो' पतन् । 'पसण्णमवि पंक' प्रशान्तमपि पङ्कं । 'खोभेदि' चालयति । ' तथा मोहं' | 'पसण्णमवि' प्रशान्तमपि । 'तरुण संसगी' तरुणगोष्ठी ॥ १०६६ ॥
५६०
कलुसीकदपि उदगं अच्छं जह होइ कदयजोएण ।
कलुसो वि तहा मोहो उवसमदि हु बुड्ढसेवाए ||१०६७॥
'कलुसीकदपि उदगं' कलुषीकृतमप्युदकं । 'कदगजोएण' कतकफलसम्बन्धेन । 'अच्छे' स्वच्छं । 'जघ होदि' यथा भवति । 'कलुसोऽपि' कलुषितोऽपि । 'मोहो' मोहः । 'उवसमदि' उपशाम्यति । 'वुड्ढसेवाए' वृद्धसेवया ॥१०६७।
विमट्टिया उदीरदि जलासयेण जह गंधो ।
लीणो उदीरदि रे मोहो तरुणासयेण तहा || १०६८ ||
'लोणो वि' लीनोऽपि । 'मट्टियाए' मृत्तिकायाः । 'गंधो' गन्धः । यथा 'जलासयेण' जलाश्रयेण । 'उदीरदि' उदयमुपैति । 'लोणो वि मोहो' लीनोऽपि नरे मोहः । 'उदीरदि' उदयमुपनीयते । 'तरुणासएण ' तरुणाश्रयेण तथा ॥ १०६८॥
संतो वि मट्टियाए गंघो लीणो हवदि जलेण विणा ।
जह तह गुट्ठीए विणा णरस्स लीणो हवदि मोहो । १०६९ ।।
'संतो वि' सन्नपि मृत्तिकाया गन्धः । जलेन विना लीनो भवति यथा तथा गोष्ठ्या विना मोहो नरस्य लीनो भवति ।। १०६९ ॥
तरुणो वि वुड्ढसीलो होदि णरो बुड्ढसंसिओ अचिरा । लज्जासंकामाणावमाणभयधम्मबुद्धीहिं ॥ १०७० ॥
गा०—जैसे तालाब में गिरकर पत्थर उसकी तलसे बैठी हुई पंकको उभारकर निर्मल जलको मलिन कर देता है, वैसे ही तरुणांका संसर्ग प्रशान्त पुरुषके भी मोहको उद्रिक्त कर देता है ||१०६६ ||
गा०-- और जैसे कतकफल डालने से गदला पानी भी निर्मल हो जाता है वैसे ही वृद्ध पुरुषों की सेवासे कलुषित मोह भी शान्त हो जाता है ||१०६७॥
गा०—जैसे मिट्टी में छिपी हुई गन्ध जलका आश्रय पाकर प्रकट हो जाती है । वैसे ही तरुणोंके संसर्गसे मनुष्य में छिपा हुआ मोह उदयमें आ जाता है ॥ १०६८ ||
Jain Education International
गा०—और जैसे मिट्टीमें वर्तमान होते हुए भी गन्ध जलके बिना मिट्टी में ही लीन रहती है । वैसे ही तरुणोंके संसर्गके विना मनुष्यका मोह उसीमें लीन रहता है, बाहर में प्रकट नहीं होता ॥ १०६९ ||
गा० - वृद्ध पुरुषोंके संसर्गसे तरुण भी शीघ्र ही लज्जासे, शंकासे, मानसे, अपमानके भय और धर्मबुद्धिसे वृद्धशील हो जाता है ॥ १०७० ॥
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org