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विजयोदया टोका
४७९ दपसारितः । 'पत्तो य सुसामण्ण' प्राप्तश्च शोभनं श्रामण्यं । "किं पुण जिणउत्तसुत्तेण' किं पुनजिनोक्तसूत्रेण प्राप्यफले आश्चर्य । वाच्यमत्राख्यानकं च । तदुक्तं
'भवत्यन्धेनाज्ञेन जीवितार्थिना यत्किचिदुक्तं वचनं श्रुत्वा हास्यपरेण राज्ञा भाव्यमानं यद्यापदपसारणे निमित्तं विश्ववेदिनां वचो भाग्यमानं किमभिलषितं न प्रापयति ।। ७७१॥ स्वल्पस्यापि श्रुतस्य भावना मरणकाले महाफलं ददातीत्येवं तत्कथयति
दढसुप्पो मूलदहो पंचणमोक्कारमेत्त सुदणाणे।
उवजुत्तो कागदो देवो जावो महड्ढओ ॥७७२॥ 'दढसुप्पो सूलदहो' दृढसूर्पो नाम चौरः शूलमारूढः । 'पंचणमोक्कारमेत्त सुदणाणे उवजुत्तो कालगदो' पञ्चनमस्कार एव श्रुतज्ञाने उपयुक्तः सन् कालगतः । 'महड्ढिगो देवो जादो' महद्धिको देवो जातः ॥७७२।।
ण य तम्मि देसयाले सव्वो बारसविधो सुदक्खंघो ।
सत्तो अणुचिंचेदु बलिणा वि समत्थचित्तेण ॥७७३।। 'सव्वो बारसविधो वि सुदक्वंधो तम्मि देसयाले ण य सक्को अणुचिते, बलिणा वि समत्थचित्तण' सर्वो द्वादशविधोऽपि श्रुतस्कंधस्तस्मिन्मरणे देशे काले च नैव शक्योऽनुस्मर्तुं नितरामपि समर्थचित्तेन । बहुश्रुतस्यापि न ध्यानालम्बनं समस्तं श्रुतं किं तु किंचिदेव सूत्रं । तथा हयुक्तं 'एकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमिति' [त० सू० ९।४५] ॥७७३॥
एक्कम्मि वि जम्मि पदे संवेगं वीदरायमग्गम्मि । गच्छदि णरो अभिक्खं तं मरणंते ण मोत्तव्यं ॥७७४॥
__ गा०-टो०-यदि श्लोकके एक खण्डके पाठसे राजा यम मृत्युसे बचा और शोभनीय मुनिपदको प्राप्त हुआ तो जिनभगवान्के द्वारा प्रतिपादित सूत्रकी स्वाध्यायसे प्राप्त होनेवाले फलमें क्या आश्चर्य है । इस विषयमें हरिषेणकृत वृहत् कथाकोशमें यममुनि की कथा है । कहा भी है
जीवनके अर्थी अज्ञानी अन्धेके द्वारा कहे गये अनर्गलवचनको सुनकर राजाने हँसीमें उसे ग्रहण किया और वह उसकी आपत्ति दूर करने में निमित्त हुआ तो सर्वज्ञके वचनका अभ्यास किस इच्छित वस्तुको नहीं देता ? अर्थात् सब देता है ॥७७१।।
आगे कहते हैं कि थोड़े से भी शास्त्र की भावना मरते समय महाफल देती है
गा०-दृढ़सूर्प नामक चोरको सूली पर चढ़ाया गया तो वह पंच नमस्कार मन्त्र-मात्र श्रु तज्ञानमें उपयोग लगाकर मरा अर्थात् पंच नमस्कार मंत्र का पाठ करते हुए मरा और मरकर महान ऋद्धिका धारी देव हुआ ॥७७२।।
गा०-मरते समय बलवान भी सामर्थ्यसम्पन्न मनुष्य समस्त द्वादशांग श्रु त स्कन्धका अनुचिन्तन नहीं कर सकता । बहुत शास्त्रोंका ज्ञाता भी समस्त श्रुतका ध्यान मरते समय नहीं कर सकता। किन्तु किसी एक का ही ध्यान सम्भव है। कहा भी है-एक विषयमें चिन्ताके निरोध को ध्यान कहते हैं ॥७७३।।
१. भवेत्पांथेनाज्ञेन-आ० ।
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