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विजयोदया टीका
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'जावदियाई' यावन्ति । 'दुक्खाई' दुःखानि । 'हृति' भवन्ति । 'चदुग्गदिगवाई' गतिचतुष्टयं गतानि । 'सव्वाणि ताणि' हिंसा फलाणि' सर्वाणि तानि हिंसाफलानि । 'जोवस्स जाणाहि' जीवस्येति जानीहि ||७९९|| का हिंसा नाम यस्या इमे दोषा निरूप्यन्ते इत्याचष्टे
हिंसादो अविरमणं वहपरिणामो य होइ हिंसा हु । तम्हा पमत्त जोगो पाणव्ववरोवओ णिच्चं ॥८०० ॥
'हिंसादो अविरमणं' हिंसातोऽविरतिहिंसेति सम्बन्धनीयं । प्राणान् प्राणिनो' न व्यपरोपयामीति संकल्पाकरणं हिंसा इत्यर्थः । 'वधपरिणामो वा' हन्मीति एवं परिणामो वा हिंसा । 'तम्हा' तस्मात् । 'पमत्तयोगो' प्रमत्तता सम्बन्धः । पाणव्ववरोवओ प्राणानपनयति । 'णिन्च' नित्यं । विकथा, कषाय इत्येवमादयः पञ्चदशपरिणामा आत्मनो भावप्राणानां परस्य च द्रव्यभावप्राणानां वियोजका इति हिंसेत्युच्यते । तथा चोक्तम्
रतो वा दुट्ठो वा मूढो वा जं पयुंजदि पओगं । .
हिंसा वि तत्थ जायदि तम्हा सो हिंसगो होइ ॥
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रक्तो द्विष्टो मूढो वा सन् यं प्रयोगं प्रारभते तस्मिन्हिसा जायते । न प्राणिनः प्राणानां वियोजनमात्रेण । आत्मनि रागादीनामनुत्पादकः सोऽभिधीयते अहिंसक इति । यस्माद्रागाद्युत्पत्तिरेव हिँसा । न हि जीवान्तरगतदेशतया अन्यतमप्राणवियोगापेक्षा हिंसा, तदभावकृता वा अहिंसा, किन्तु आत्मैव हिंसा आत्मा चैव अहिंसा । प्रमादपरिणत आत्मैव हिंसा अप्रमत्त एव च अहिंसा । उक्तं च-
अत्ता चेव अहिंसा अत्ता हिंसत्ति णिच्छओ समये य ! जो होदि अप्पमत्त अहिंसगो हिंसगो इदरी ॥
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गा०—इस लोकमें चारों गतियों में जितने दुःख होते है वे सब उस जीवकी हिंसाके फल जानो ॥७२९||
जिसके ये दोष कहे हैं वह हिंसा किसे कहते हैं, यह बतलाते हैं
गा० - टी० – हिंसा से विरत न होना हिंसा है । अर्थात् 'मैं प्राणीके प्राणोंका घात नहीं करूँगा' ऐसा संकल्प न करना हिंसा है । अथवा 'मैं मारूं' ऐसा परिणाम हिंसा है । इसलिए प्रमादीपना नित्य प्राणोंका घातक है । अर्थात् विकथा कषाय इत्यादि पन्द्रह प्रमादरूप परिणाम अपने भाव प्राणोंके और दूसरेके द्रव्यप्राण तथा भावप्राणोंके घातक होनेसे हिंसा कहे जाते हैं । कहा भी है
रागी, द्वेषी और मोही होकर जो कार्य करता है उसमें हिंसा होती है । प्राणियोंके प्राणोंका घात हो जाने मात्रसे हिंसा नहीं होती । जो अपने रागादि भावोंको नहीं करता, उसे अहिंसक कहते हैं, क्योंकि रागादिकी उत्पत्ति ही हिंसा है । अन्य जीवके किसी प्राणके घातकी अपेक्षा हिंसा और उसका घात न होना अहिंसा नहीं है । किन्तु आत्मा ही हिंसा और आत्मा ही अहिंसा है । प्रमादभावसे युक्त आत्मा ही हिंसा है और अप्रमादी आत्मा ही अहिंसा है । कहा है
निश्चयसे आगममें आत्माको ही अहिंसा और आत्माको ही हिंसा कहा है। जो अप्रमादी आत्मा है वह अहिंसक है और जो प्रमादभावसे युक्त है वह हिंसा है !
१. नो व्यपरोपयामीति संकल्पक-आ० मु० ।
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