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विजयोदया टीका
५१३ अदत्तादानदोषानुपदर्य दत्त योग्यं गृहाणेति व्याचष्टे
एदे सव्वे दोसा ण होंति परदव्वहरणविरदस्स । तव्विवरीदा य गुणा होति सदा दत्तभोइस्स ॥८६९।। देविंदरायगहवइदेवदसाहम्मि उग्गहं तम्हा ।
उग्गहविहिणा दिण्णं गेण्हसु सामण्णसाहणयं ।।८७०।। 'देविंदराजगहवइ' देवेन्द्राणां, राज्ञां, गृहपतीनां, राष्ट्रकूटानां, देवतानां, सधर्मणां च परिग्रहं । 'उग्गह विहिणा' अवग्राह्यविधिना । “दिण्णं' दत्तं । 'गिण्हसु' गृहाण । 'सामण्णसाहणयं' श्रामण्यसाधनं ज्ञानसंयमस्य वा साधनं । अदत्तं ।। ८७०॥ चतुर्थ व्रतं निरूपयति
रक्खाहि बभचेरं अब्धंभं दसविधं तु वज्जित्ता। . __ णिच्चं पि अप्पमत्तो पंचविधे इत्थिवेरग्गे ॥८७१।।
'रक्खाहि बंभचेरं' पालय ब्रह्मचर्य। अब्रह्म दशप्रकारमपि वर्जयित्वा नित्यमप्रमत्तः पञ्चविधे स्त्रीवैराग्य ॥८७१।। ब्रह्मचर्य पालयेत्युक्तं तदेव न ज्ञायते इत्यारेकायां तद्वयाचष्टे
जीवो बंभा जीवम्मि चेव चरिया हविज्ज जा जदिणो।
तं जाण बंभचरं विमुक्कपरदेहतत्तिस्स ।।८७२।। 'जीवो बंभा' ब्रह्मशब्देन जीवो भण्यते । ज्ञानदर्शनादिरूपेण वर्द्धते इति वा । यावल्लोकाकाशं वर्धते लोकपुरणाख्यायां क्रियायां इति वा । 'जीवम्मि चेव' ब्रह्मण्येव चर्या । जीवस्वरूपमनन्तपर्यायात्मकमेव निरूप
अदत्तादानके दोष बतलाकर योग्य दत्तवस्तको ग्रहण करनेकी प्रेरणा करते हैं--
गा०--जो परद्रव्य हरनेका त्यागी होता है उसे ये सब दोष नहीं होते। तथा जो दत्तवस्तुका ही उपभोग करता है उसमें उक्त दोषोंसे विपरीत गुण सदा होते हैं ।।८६९।।
गा०--हे क्षपक । देवेन्द्र, राजा, गृहपति, देवता और साधर्मी साधुओंके द्वारा विधिपूर्वक दी गई परिग्रहको, जो ज्ञान और संयमकी साधक हो, ग्रहण कर ।।८७०॥
अदत्तविरत व्रतका कथन समाप्त हुआ। चतुर्थ व्रतका कथन करते हैं
गा०-हे क्षपक ! दस प्रकारके अब्रह्मको त्याग कर ब्रह्मचर्यकी रक्षा कर । और पांच प्रकार के स्त्री वैराग्यमें सदा सावधान रह ।।८७१।।
ब्रह्मचर्यके पालन करनेको तो कहा । किन्तु ब्रह्मचर्य क्या है यही नहीं जानते। इसके लिए कहते हैं
गा०-टी०-ब्रह्म शब्दसे जीव कहा जाता है। अथवा 'बृह' धातुसे ब्रह्म शब्द बना है उसका अर्थ होता है बढ़ना। ज्ञान दर्शन आदि रूपसे बढ़नेको ब्रह्म कहते हैं। अथवा जब सयोग केवली जिन लोकपूरण समुद्धात करते हैं तो उनके आत्म प्रदेश लोकाकाश प्रमाण बढ़कर फैल
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