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विजयोदया टीका परदबहरणमेदं आसवदारं खु उति पावस्स ।
सोगरियवाहपरदारिएहि चोरो हु पापदरो ॥८५९॥ 'परदव्वहरणमेदं' परद्रव्यापहरणमेतत् पापस्यास्रवद्वारं ब्रुवन्ति । शौकरिकात्, व्याधात्, परदाररतिप्रियाच्च चौरः पापीयान् ॥८५९॥
सयणं मित्तं आसयमल्लीणं पि य महल्लए दोसे ।
पाडेदि चोरियाए अयसे दुक्खम्मि य महल्ले ॥८६०॥ 'सयणं मित्तं' बन्धून्मित्राणि आश्रयभूतं समीपस्थं च महति दोषे बन्धवधधनापहरणादिके पातयति चौर्यं । महत्ययशसि दुःखे च निपातयति ॥८६०॥
बंधवधजादणाओ छायाघादपरिभवभयं सोयं ।
पावदि चोरो सयमवि मरणं सव्वस्सहरणं वा ।।८६१।। 'बंधवधजादणाओ' बन्धं, वधं, यातनाश्च, छायाघातं, परिभवं, भयं, शोकं प्राप्नोति । स्वयमपि चौरो मरणं सर्वस्वहरणं वा ।।८६१।।
णिच्चं दिया य रत्तिं च संकमाणो ण णिद्दमुवलभदि ।
तेणं तओ समंता उब्विग्गमओ य पिच्छंतो ।।८६२॥ 'णिच्चं दिया य रत्ति च संकमाणो' नित्यं दिवारात्रि शङ्कमानः न निद्रामुपलभते चौरः । समन्तात्प्रेक्षते उद्विग्नहरिण इव ।।८६२॥
उंदुरकदपि सदं सुच्चा परिवेवमाणसव्वंगो।
सहसा समुच्छिदभओ उन्विग्गो धावदि खलंतो ।।८६३॥ 'उदुरकदंपि सई' मृषकचलनकृतमपि शब्दं श्रुत्वा प्रस्फुरत्सर्वगात्रः सहसोत्यभयोद्विग्नो धावति स्खलपदे पदे ।।८६३॥
गा०-यह परद्रव्यका हरण पापके आनेका द्वार कहा जाता है। मृग पशु पक्षियोंका घात करनेवाले और परस्त्रीगमनके प्रेमीजनोंसे चोर अधिक पापी होता है ॥८५९।।
गा-चोरीका. व्यसन वन्धु, मित्र, अपने आश्रित, और निकटमें रहनेवालोको भी वध, बन्ध, धनका हरना आदि दोषोंमें डाल देता है वे भी ऐसे बुरे काम करने लगते हैं। तथा वे महान् .अपयश और दुःखके भागी होते हैं ।।८६०॥
___या०-चोर स्वयं भी बन्ध, वध, कष्ट, तिरस्कार, भय, शोक, मरण और सर्वस्व हरणका भागी होता है ।।८६१॥
१|| .. . . गा०--चोर दिन रात पकड़े जानेकी आशंकासे सोता नहीं है और भयभीत हरिनकी तरह चारों ओर देखा करता है ।।८६२॥
गा०-चूहेके द्वारा भी किये शब्दको सुनकर उसका सर्वांग थरथर काँपने लगता है, एकदम भयसे भीत हो, घबराकर दौड़ता है और पद-पदपर गिरता उठता है.॥८६३।। .... .
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