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भगवती आराधना
अडईगिरिदरिसागरजुद्धाणि अति अत्थलोभादो | पियबंधु चेवि जीवं पि णरा पयहंति घणहेतुं ॥ ८५४ ||
'अडईगिरिवरिसागर' अटवीं, दरी, गिरि, सागरं युद्धं प्रविशन्ति अर्थ लोभात् । प्रियान्बन्धून् जीवितं च नरा जहति धननिमित्तं । सर्वेभ्यो धनं प्रियतमं यतस्तदर्थिनः सर्वं त्यजन्ति इति भावार्थो गाथायाः ।। ८५४ || अत्थे संतम्मि सुहं जीवदि सफलतपुत्तसंबंधी ।
अत्थं हरमाणेण य हिंदं हवदि जीविदं तेसिं ।। ८५५ ।।
'अत्थे संतम्मि सुहं' अर्थे सति सुखं 'जोवदि सकलत्तपुत्त सम्बन्धी' जीवति सह कलत्रैर्भार्याभिः पुत्रैबंधुभिश्च । अर्थं हरता तेषां कलत्रादीनां जीवितमेव हृतं भवति ॥ ८५५ ।।
चोरस णत्थि oिre दया य लज्जा दमो व विस्सासो | चोरस्स अत्थहेतुं णत्थि अकादव्वयं किं पि ।। ८५६॥
'चोरस्स णत्थि हियए' चौरस्य नास्ति हृदये । दया, लज्जा, दमो, विश्वासो वा । चौरस्य नास्ति अकर्तव्यं किचित् । अर्थार्थिन इति भावार्थः ॥ ८५६ ॥
लोगम्मि अत्थि पक्खो अवरद्धंतस्स अण्णमवराधं ।
यल्लया विपक्खे ण होंति चोरिक्कसीलस्स ||८५७ ||
'लोयम्मि अस्थि पक्खो' लोकेऽस्ति पक्षोऽन्यमपराधं हिंसादिकं कुर्वतो बन्धवोऽपि न पक्षतां प्रतिपद्यन्ते ये चौर्यकारिणः ॥८५७॥
अणं अवरज्झतस्स दिति णियये घरम्मि ओगासं ।
मायाविय ओगास ण देइ चोरिक्कसीलस्स || ८५८ ||
'अण्णं अवरज्झतस्स' अन्यं अपराधं कुर्वतः ददति स्वावासे अवकाशं । माताप्यवकाशं न ददाति चुरायां
प्रवृत्तस्य ||८५८||
गा०—धनके लोभसे मनुष्य जंगल, पर्वत, गुफा और समुद्रमें भटकता है, युद्ध करता है । धनके लिए मनुष्य प्रियजनोंका और अपने जीवनका भी त्याग करता है । सारांश यह है कि मनुष्यको धन सबसे प्रिय है उसके लिए वह सबको छोड़ देता है || ८५४ ॥
गा० - धनके होनेपर मनुष्य स्त्री पुत्र और बन्धु बान्धवोंके साथ सुखपूर्वक जीवन यापन करता है । धनके हरे जानेपर उन स्त्री आदिका जीवन ही हर लिया जाता है ||८५५ ।।
गा० - चोरके हृदय में दया, लज्जा, साहस और विश्वास नहीं होते । चोर धनके लिए कुछ भी कर सकता है उसके लिए न करने योग्य कुछ भी नहीं है ||८५६ ||
गा० - हिंसा आदि अन्य अपराध करनेवाले के पक्ष में तो लोग रहते है किन्तु चोरी करनेवालेके पक्षमें बन्धु बान्धव भी नहीं होते || ८५७॥
गा०—–अन्य अपराध करनेवालेको लोग अपने घरमें आश्रय देते हैं । किन्तु चोरी करनेवालेको माता भी आश्रय नहीं देती || ८५८||
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