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भंगवती आराधना 'मा कुणसु तुमं बुद्धि' मा कृथास्त्वं बुद्धिं । कीदृशीं ? 'परादियं घेतुं' परकीयं वस्तु ग्रहीतु । परकीयवस्तु विशेषणमाचष्टे-'बहुमप्पं वा' महदल्पं वा । अल्पद्रव्यपरिमाणमभिदधाति-तंतरशोधणगं कलिदमेत्तंपि' दन्तान्तरशुद्धिकारि तृणशलाकामात्रमपि । 'अविदिण्णं' अदत्त ॥८४७।।
जह मक्कडओ घादो वि फलं दट्टण लोहिदं तस्स ।
दूरत्थस्स वि डेवदि जइ वि घित्तण छंडेदि ।।८४८॥ 'जह मक्कडगो' यथा मर्कटो वानरः । 'धादो वि' तृप्तोऽपि । 'दठूण फलं' दृष्ट्वापिं फलं । 'लोहिद' रक्तं । 'तस्स दूरत्यस्स वि डेवदि' दूरस्थमपि फलमुद्दिश्योल्लंघनं करोति । 'जवि वि चित्तूण छंडेदि' यद्यपि गृहीत्वा त्यजति ॥८४८॥ दार्टान्तिके योजयति
एवं जं जं पस्सदि दव्वं अहिलसदि पाविद् तं तं ।
सव्वजगेण वि जीवो लोभाइट्ठो न तिप्पेदि ।।८४९॥ 'एवं जं जं पस्सदि' एवं यद्यत्पश्यति द्रव्यं । 'तं तं पाविदुमहिलसदि' तत्तद्र्व्यं प्राप्तुमभिलषति । 'सध्वजगेण वि' सर्वेणापि जगता । 'लोभाइट्ठो जीवो ण तिप्पेदि' जीवो लोभाविष्टो न तृप्यति ।।८४९।।
जह मारुओ पवड्डइ खणेण वित्थरइ अन्भयं च जहा ।
जीवस्स तहा लोभो मंदो वि खणेण वित्थरइ ।।८५०।। 'जह मारुओ पवड्ढइ' यथा मारुतः प्रवर्द्धते । 'खण' क्षणेन । 'वित्थरदि' विस्तीर्णो भवति । 'अभयं च जहा' यथा चान। 'जीवस्स' जीवस्य । 'तह' तथा । लोभो मन्दोऽपि क्षणेनैव विस्तीर्णतामुपयाति ॥८५०॥
__ बाह्यद्रव्यसन्निधिमपपेक्ष्य लोभकर्मण उदयो जायते तस्य लोभश्च वद्धते तद्वृद्धौ चायं दोष इति व्याचष्टे
लोमे पवढिदे पुण कज्जाकज्ज णरो ण चिंतेदि ।
तो अप्पणो वि मरणं अगणितो साहसं कुणइ ।।८५१।। गा०-हे क्षपक ! तुम पराई बहुत या अल्प वस्तुको भी ग्रहण करनेकी भावना मत करो । दाँतका मल शोधनेके लिए एक तिनका भी विना दिया मत ग्रहण करो ॥८४७||
गा०-जैसे बन्दर पेट भरा होनेपर भी लाल पके फलको देखकर दूरसे ही फल ग्रहण करनेके लिए कूदता है, यद्यपि वह उसे फिर छोड़ देता है ।।८४८।।।
गा०-वैसे ही मनुष्य जो जो वस्तु देखता है उस उसको प्राप्त करनेकी इच्छा करता है । लोभसे घिरा मनुष्य समस्त जगत्को पाकर भी सन्तुष्ट नहीं होता ।।८४९।।
गा०---जैसे मन्द वायु बढ़कर क्षणभरमें फैल जाती है या मेघ बढ़ते-बढ़ते आकाशमें फैल जाते हैं । वैसे ही जीवका थोड़ा-सा भी लोभ क्षणभरमें बढ़ जाता है ।।८५०।।
आगे कहते हैं कि बाह्य द्रव्यका सान्निध्य पाकर लोभकर्मका उदय होता है उससे मनुष्य
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