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भगवती आराधना
सोयदि विवदि परितपदी य कामादुरो विसीयदि य । रतििदिया य णिद्दं ण लहदि पज्झादि विमणो य || ८७८ ||
'सोयदि विवदि' शोचते, विलपति । परितप्यते । 'कामादुरो विसीयदि य' कामातुरो विषीदति च । नक्तं दिनं निद्रां न लभते । पज्झादि विमनस्को भवति ॥ ८७८ ॥
सयणे जणे य सयणासणे य गामे घरे व रण्णे वा ।
कामपिसायग्गहिदो ण रमदि य तह भोयणादी ||८७९ ||
'सयणे जणे य' स्वजने परजने, शयने, आसने, ग्रामे, गृहे, अरण्ये, भोजनादिक्रियासु च न रमते कामपिशाचगृहीतः ।।८७९॥
कामादुरस्स गच्छदि खणो वि संवच्छरो व पुरिसस्स ।
सीदंतिय अंगाई होदि अ उक्कंठिओ पुरिसो ||८८० ||
'कामादुरस गच्छदि खणो वि' कामव्याधितस्य गच्छति क्षणोऽपि संवत्सर इव । अङ्गानि च सीदन्ति । भवत्युत्कण्ठितश्च पुरुषः ॥ ८८० ॥
पाणिदलधरिदगंडो बहुसो चिंतेदि किं पि दीणमुहो । सीदे विणिवाइज्जइ वेवदि य अकारणे अंगं ॥८८१ ॥
'पाणिदलधरिवगंडो' पाणितलधृतगंड:, 'बहुसो चितेवि' बहुशश्चितां करोति । किमपि दीनमुखः । शीतेऽपि स्विद्यते । वेपते च अङ्गं कारणमन्यदन्तरेण ॥८८१ ॥
कामु मत्तो संतो अंतो उज्झदि य कामचिंताए ।
पीदो व कलकलो सो रदग्गिजाले जलंतम्मि ||८८२||
'कामु मत्तो' कामोन्मत्तः । कामचिन्तया चिरं दह्यते । पीतताम्रद्रव इव । अरत्यग्नेज्वलासु ज्वलन्तीषु ॥८८२ ॥
सब दोष वर्तमान हैं ॥ ८७७॥
गा० - कामसे पीड़ित मनुष्य शोक करता है, विलाप करता है, परिताप करता है, विषाद करता है, रात दिन नहीं सोता । इष्ट स्त्री आदिका स्मरण करता है और अन्यमनस्क होकर धर्म कर्म भी भूल जाता है ||८७८॥
गा० - कामरूपी पिशाचके द्वारा पकड़े गये मनुष्यका मन स्वजनमें, अन्य मनुष्यों में, शयनमें, आसन में ग्राममें, घरमें वनमें और भोजन आदिमें नहीं रमता || ८७९ ||
गा० - कामसे पीड़ित मनुष्यका एक क्षण भी अंग वेदनाकारक होते हैं । और वह उत्कण्ठित होता है पान में नहीं लगता । वह उसे रुचता नहीं ||८८० ॥
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एक वर्षकी उसका मन
गा०—वह अपनी हथेलीपर गाल रखकर दीनमुखसे बहुत-सी व्यर्थं चिन्ता किया करता है । शीतकाल में भी पसीनेसे भींग जाता है । विना कारण ही उसके अंग काँपते हैं ||८८१||
तरह बीतता है । उसके उसीमें लगा रहता है खान
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