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विजयोदया टीका
कामादुरो णरो पुण कामिज्जते जणे हु अलहंतो ।
धत्तदि मरिदुं बहुधा मरुप्पवादादिकरणेहिं ॥ ८८३॥
'कामादुरो' कामातुरो नरः । स्वाभिलषिते जने अलभ्यमाने चेष्टते बहुधा तु । पर्वतोदधिनिपातेन तरुशाखावलम्बनेन, अग्निप्रवेशादिना वा ॥८८३ ॥ |
संक पंडयजादेण रागदो सचलजमलजीहेण ।
विसय बिलवासिणा रदिमुहेण चिंतादिरोसेण ||८८४||
'संकप्पंडयजादेण' संकल्पाण्डप्रसूतेन । रागद्वेषचलयमलजिह्वेन । विषयविलवासिना रतिमुखेन चिन्तातिरोषेण ||८८४ |
कामभुजगेण दट्ठा लज्जाणिम्मोगदप्पदाढेण ।
संतरा अवसा अणेयदुक्खावहविसेण ||८८५||
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'कामभुजंगेण' कामसर्पेण । लज्जात्वक्निर्मोचनकारिसदर्पद्रष्ट्रेण दष्टा अनेकदुःखावहविषेणावशा नरा नश्यन्ति ||८८५ ॥
आसीविसेण अवरुद्धस्स वि वेगा हवंति सत्तेव ।
दस होंति पुणो वेगा कामभुअंगावरुद्धस्स ॥ ८६ ॥
'आसीविसेण' आशीविषेण सर्पाग्रणिना दष्टस्यापि सप्तव वेगा भवन्ति । कामभुजङ्गेन दष्टस्य दशवेगा भवन्ति ॥८८६ ॥
तान्दशापि वेगान्क्रमेण दर्शयति-
गा० - कामसे उन्मत्त पुरुष अन्तरंग में कामकी चिन्तासे जला करता है । जैसे आगसे तपा ताम्बेका द्रव पीकर मनुष्य अन्तरंग में जलता है वैसे ही वह इच्छित स्त्रीके न मिलनेपर अन्तरंगमें जलती हुई अरतिरूप आगकी ज्वालामें जलता है ||८८२ ॥
गा०-- कामसे पीड़ित मनुष्य अपनी इच्छित स्त्रीके न मिलनेपर प्रायः पर्वतसे गिरकर या समुद्रमें डूबकर या वृक्षकी शाखासे लटककर अथवा आगमें कूदकर मरनेकी चेष्टा करता है ||८८३ ॥
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गा० - कामरूप सर्प मानसिक संकल्परूप अण्डेसे उत्पन्न होता है। उसके रागद्वेषरूप दो जिह्वाएँ होती हैं जो सदा चला करती हैं । विषयरूपी बिलमें उसका निवास है । रति उसका मुख है । चिन्तारूप अतिरोष है । लज्जा उसकी कांचली है उसे वह छोड़ देता है । मद उसकी दाढ़ है । अनेक प्रकारके दुःख उसका जहर हैं । ऐसे कामरूप सर्पसे डँसा हुआ मनुष्य नाशको प्राप्त होता है ||८८४-८८५ ।।
गा०-- सब सर्पों में प्रमुख आशीविष सर्प होता है । उसके द्वारा इसे मनुष्यके तो सात ही वेग होते हैं । किन्तु कामरूपी सर्पके द्वारा इसे मनुष्यके दस वेग होते हैं | ८८६ ॥
उन दस वेगोंको क्रमसे कहते हैं
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