________________
५२६
• भगवती आराधना 'परमहिलं सेवंतो' परस्त्रियं सेवमानः, वैरं, वधं, वन्धं, कलह, धननाशं च प्राप्नोति 'राजमूलात् तस्याः स्वजनाद्वा ।।९२१।।
जदि दा जणेइ मेहुणसेवा प्पवंस दारम्मि ।
अदितिव्वं कह पावं ण हुज्ज परदारसेविस्स ॥९२२।। 'जदि ता जणेइ' यदि तावज्जनयति मैथुनकमसेवा । किं ? पापं स्वभार्यायां । अतितीव्र कथं पाएंग भवेत् 'परदारसेविस्स' परस्त्रीसेविनः अदत्तादानमब्रह्मेति द्वौ यतो दोषौ ॥९२२॥
मादा धूदा भज्जा भगिणीसु परेण विप्पयम्मि कदे ।
जह दुक्खमप्पणो होइ तहा अण्णस्स वि णरस्स ।।९२३॥ 'मादा धूदा' मातरि दुहितरि भगिन्यां परेण विप्रिये कृते कर्मणि यथा दुःखमात्मनो भवति । तथाऽन्यस्यापि नरस्य दुःखं भवति । तन्मात्रादिविषये असद्व्यवहारे सति ॥९२३॥
एवं परजणदुक्खे हिरवेक्खो दुक्खबीयमज्जेदि । '
णीयं गोदं इत्थीणउंसवेदं च अदितिव्वं ।।९२४॥ 'एवं परजणदुःखे' एवमन्यजनदुःखे निरपेक्षः परदाररतिप्रियो दुःखबीजं संचिनोति । किं ? असद्वेद्यं कर्म, नीचैर्गोत्रं, स्त्रीत्वं, नपुंसकत्वं च ।।९२४॥
जमणिच्छंती महिलं अवसं परिभंजदे जहिच्छाए ।
तह य किलिस्सइ जं सो तं से परदारगमणफलं ॥९२५॥ 'जमणिच्छंती महिलं' यन्नेच्छन्ती पुमांसं स्त्रीत्वेन अवशा यथेच्छया परिभुज्यमाना यक्लिश्यति तत्तस्या जन्मान्तराचरितपरदारगमनफलं ॥९२५।।
गाo-परस्त्रीका सेवन करने वाले के सव वैरी होते हैं। वह राजाके पुरुषोंसे अथवा उस स्त्रीके सम्बन्धियोंसे बध, वन्धन, कलह और धन नाशका कष्ट पाता है ।।९२१।।
गा०–यदि अपनी पत्नीमें भी मैथुन सेवनसे पाप कर्मका बन्ध होता है तो परस्त्री सेवीको अति तीव्र पापका वन्ध क्यों नहीं होगा; क्योंकि उसमें चोरी और अब्रह्म सेवन दो दोष हैं ॥९२२।।
गा०-अपनी माता, पुत्री और बहिनके प्रति यदि कोई अप्रिय व्यवहार करे तो जैसे हमें दुःख होता है वैसे ही दूसरोंकी माता आदिके विषयमें असद् व्यवहार करने पर दूसरों को भी दुःख होता है ।।९२३॥
___ गा०-इस प्रकार दूसरों के दुःखका ध्यान न रखनेवाला परस्त्रीगामी पुरुष दुःखके बीज नीचगोत्र, स्त्रीवेद और नपुंसक वेदका अति तीव्र बन्ध करता है ।।९२४॥
गा०—इस जन्ममें जो स्त्री परवश होकर ऐसे पुरुषके द्वारा, जिसे वह नहीं चाहती, यथेच्छ भोगी जाती और कष्ट पाती है यह उसके पूर्वजन्ममें किये गये पर स्त्री-गमनका फल है ।।९२५॥
१. राजकुलात्-आ० ।
२. वा पावं सगम्मि दारम्मि-आ० मु० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org