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विजयोदया टोका
५३३ 'जुण्णो' वृद्धो वा 'दरिद्दो' दरिद्रः । 'रोगिदो' व्याधितः । 'सो चेव' स एव युवत्वे धनित्वे नीरोगत्वे वा य: प्रियः स एव होधि' भवति । 'से' तस्याः । 'वेसो' देष्यः । गिप्पीलिदोव्व' निष्पीडित इव 'उच्छ' इक्षुः । ‘मालाव मिलाय गदगंधा' मालेव म्लाना नष्टगन्धा । अपहृतरस इक्षुः शोभारहितनिर्गन्धमाला च यथाऽप्रिया । यौवनं, धनं, शक्तिश्च पुंसोऽतिशयस्तदपाये नवासाविष्यते स्त्रीभिः ।।९५०।।
महिला पुरिसमवण्णाए चेव वंचइ णियडिकवडेहिं ।
महिला पुण पुरिसकदं जाणइ कवडं अवण्णाए ॥९५१।। 'महिला पुरिसमवण्णाए' वनिता पुरुषमनादरेणैव वञ्चयति । निकृत्या कपटतया च स्त्रीभिः कृतां निकृति वश्चनां शठतां च न जानन्ति पुमांसः । 'महिला पुण' वामलोचना पुनः 'जाणदि' जानाति । कि ? कपटशतं 'पुरिसकदं' पुरुषेण कृतं । 'अवण्णाए' अवज्ञया औदासीन्येनैव अक्लेशेनेति यावत् ॥९५१॥ नरो ह्येवं मन्यते प्रियोऽहमेतस्या इति न' च सा इत्याचष्टे
जह जह मण्णेइ गरो तह तह परिभवइ तं परं महिला ।
जह जह कामेइ गरो तह तह पुरिसं विमाणेइ ।।९५२।। 'जह जह मण्णेइ गरो' यथा यथा मानयति नरः तथा तथा परिभवति तं नरं युवतिः । 'जह जह कामेदि गरो' यथा यथा कामयते मनुष्यस्तथा तथा 'पुरिसं विमाणेदि' तथा तथा पुरुषं विमानयति ॥९५२॥
मत्तो गउव्व णिच्चं पि ताउ मदविभलाओ महिलाओ।
दासेव सगे पुरिसे किं पि य ण गणंति महिलाओ ॥९५३॥ 'मत्तो गओव्द' मत्तगज इव । 'णिच्च' नित्यं । 'ताओ मदविभलाओ' मदेन विह्वला युवतयः । 'दासे व सगे पुरिसे' दासे वा स्वपुरुषे वा। "किंचिवि' किञ्चिदपि विशेषजातं । 'ण गणंति' नैव गणयन्ति । कुलीनोऽयं मान्यो भर्ता स्वामी मम । दास्याः पुत्रोऽयं जघन्यः अहमस्य 'स्वामिनीति विवेकं (न) करोति ॥९५३॥
गा०-टी०-युवावस्थामें, धनी अवस्थामें अथवा नीरोग अवस्थामें जो मनुष्य स्त्रियोंको प्रिय होता है वही मनुष्य वृद्ध, दरिद्र अथवा रोगी होने पर रस निकाली हुई ईखकी तरह अथवा गन्ध रहित मलिन मालाकी तरह अप्रिय होता है। अर्थात् रस निकाली हुई ईख और शोभा रहित गन्धहीन माला जैसे अप्रिय होती है वैसे ही यौवन धन और शक्ति पुरुष की विशेषताएँ हैं, उनके न रहने पर उसे स्त्रियाँ पसन्द नहीं करतीं ॥९५०॥
गा०-स्त्री पुरुषको छल कपटके द्वारा अनायास ही ठग लेती है, पुरुष स्त्रियोंके छल कपटको जान भी नहीं पाता। किन्तु पुरुषके द्वारा किये गये कपटको स्त्री तुरन्त जान लेती है उसे उसके लिये कुछ भी कष्ट उठाना नहीं होता ॥९५१।।।
पुरुष समझता है कि मैं इसको प्रिय हूँ किन्तु स्त्री ऐसा नहीं समझती, यह कहते हैं
गा०-जैसे जैसे पुरुष स्त्रीका आदर करता है वैसे वैसे स्त्री उसका निरादर करती है। जैसे जैसे मनुष्य उसकी कामना करता है वैसे वैसे वह पुरुषको अवज्ञा करती है ॥९५२।।
गा०—मत्त हाथीको तरह स्त्रियाँ मदसे उन्मत्त रहती हैं। वे अपने दासमें और पतिमें कुछ
१. न चासौ प्रिय इ-आ० म०। २. स्वामी नेति-ज० ।
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