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विजयोदया टोकां एगपदिव्वइकण्णावयाणि धारिति कित्तिा महिलाओ । वेधव्वतिव्वदुक्खं आजीवं णिति काओ वि ॥९९१।। सीलवदीवो सुच्चंति महीयले पत्तपाडिहेराओ । सावाणुग्गहसमत्थाओ वि य काओवि महिलाओ ॥९९२।। ओग्घेण ण बूढाओ जलंतघोरग्गिणा ण दड्ढाओ । सप्पेहिं 'सावदेहि य परिहरिदाओव काओ वि ॥९९३।। सव्वगुणसमग्गाणं साहूणं पुरिसपवरसीहाणं । चरमाणं जणणित्तं पत्ताओ हवंति काओ वि ॥९९४॥ मोहोंदयेण जीवों सव्वो दुस्सीलमइलिदो होदि । सो पुण सव्वो महिला पुरिसाणं होइ सामण्णो ॥९९५।। तम्हा सा पल्लवणा पउरा महिलाण होदि अधिकिच्चा ।
सीलवदीओ भणिदे दोसे किह णाम पावंति ।।९९६॥ इत्थिगदा ।।९९६।। स्त्रीगतान्दोषानभिवाद्य अशुचिनिरूपणार्थं उत्तरप्रबन्धः
देहस्स बीयणिप्पत्तिखेतआहारजम्मवुड्ढीओ। अवयवणिग्गमअसुई पिच्छसु वाधी य अधुवत्तं ॥९९७।।
गा०—कितनी ही महिलाएँ एक पतिव्रत और कौमार ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं। कितनी ही जीवन पर्यन्त वैधव्यका तीव्र दुःख भोगती हैं ॥९९१॥ ऐसी भी कितनी शीलवती स्त्रियाँ सुनी जाती हैं जिन्हें देवोंके द्वारा सन्मान आदि प्राप्त हुआ तथा जो शीलके प्रभावसे शाप देने और अनुग्रह करने में समर्थ थीं ।।९९२।। कितनी ही शीलवती स्त्रियाँ महानदीके जल प्रवाहमें भी नहीं डूब सकी और प्रज्वलित घोर आगमें भी नहीं जल सकी तथा सर्प व्याघ्र आदि भी उनका कुछ नहीं कर सके ।।९९३।। कितनी ही स्त्रियाँ सर्व गुणोंसे सम्पन्न साधुओं और पुरुषोंमें श्रेष्ठ चरम शरीरी पुरुषोंको जन्म देने वाली माताएँ हुई हैं ।।९९४।। सब जीव मोहके उदयसे कुशीलसे मलिन होते हैं । और वह मोहका उदय स्त्री-पुरुषोंके समान रूपसे होता है ।।९९५॥
गा०-अतः ऊपर जो स्त्रियोंके दोषोंका वर्णन किया है वह स्त्री सामान्यकी दृष्टिसे किया है । शीलवती स्त्रियोंमें ऊपर कहे दोष कैसे हो सकते हैं ॥९९६।।
इस प्रकार स्त्रियोंके गुण-दोषोंका वर्णन सम्पूर्ण हुआ। स्त्रियोंके दोषोंको कहनेके पश्चात् अशुचित्वका कथन करते हैं
१. कित्तिमालाओ इति पाठान्तरं मूलारा० । २. सावज्जेहि वि हरिदा खद्धाण काओवि-आ०म० । ३.पण्णवणा आ० ।
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