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विजयोदया टीका
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'समिदकदो घदपुण्णो सुज्झवि' कणिकाकृतं घृतपूर्णकं 'सुज्झदि' शुद्धयति । 'सुद्धत्तणेण' शुद्धतया । 'समिदस्स' कणिकाद्रव्यस्य । 'असुचिम्मि बीए' अशुचिबीजे तस्मिन्स्थिते । 'कह देहो सो हवे सुद्धो' देहः परिणामः कथं शुद्धयति । बीयं ॥१०००॥ शरीरनिष्पत्तिक्रमनिरूपणार्थ उत्तरप्रबन्धः
कललगदं दसरत्तं अच्छदि कलुसीकदं च दसरत्तं ।
थिरभूदं दसरत्तं अच्छदि गब्भम्मि तं बीयं ॥१००१॥ 'कललगदं' कललत्वं नाम पर्यायः तं गतं प्राप्तं बीजं दश दिनमात्रं । 'अच्छदि' आस्ते । 'कलुसीकदं' च कलुषीकृतं च । दश रात्रमात्रं अवतिष्ठते । 'थिरभूदं दसरत्तं' स्थिरभूतं यावद्दशदिनमात्रं । 'अच्छवि' आस्ते । 'गब्भम्मि' गर्ने । 'तं बीज' तबीजं ॥१००१।।
तत्तो मासं बुब्बुदभूदं अच्छदि पुणो वि घणभूदं ।
जायदि मासेण तदो मंसप्पेसी य मासेण ॥१००२॥ 'तत्तो' स्थिरभावोत्तरकालं । 'मासं बुबुदभूतं अच्छदि' मासमात्र बुद्बुद इव आस्ते। 'पुणो वि घणभूदं' पुनरपि धनभूतं । 'जायदि मासेण' जायते मासेन ततोऽपि धनभावादुत्तरकालं । 'मासेण' मासेन । 'मंसप्पेसीय' मांसपेशी भवति ॥१००२।।
मासेण पंच पुलगा तत्तो हुँति हु पुणो वि मासेण ।
अंगाणि उवंगाणि य परस्स जायंति गम्भम्मि ॥१००३।। 'मासेण पंच पुलगा' मासेन पञ्च पुलका भवन्ति । 'पुणो वि मासेण' पुनरुत्तरेण मासेन । 'अंगाणि उवंगाणि य' अङ्गान्युपाङ्गानि च । 'णरस्स जायंति गन्भम्भि' नरस्य जायन्ते गर्भे ॥१००३॥
मासम्मि सत्तमे तस्स होदि चम्मणहरोमणिप्पत्ती ।
फंदणमट्ठममासे णवमे दसमे य णिग्गमणं ॥१००४॥ कारण गेहूँका चूर्ण शुद्ध है। किन्तु जिसका बीज अशुद्ध है उससे बना शरीर शुद्ध कैसे हो सकता है ॥१०००॥
शरीरकी रचनाका क्रम कहते हैं
गा०-गर्भमें स्थित माताका रज और पिताका वीर्यरूप बीज दस दिनतक कललरूपमें रहता है । फिर दस दिन तक कालिमारूप होता है फिर दस दिन तक स्थिर रहता है ।।१००१।।
गा०—स्थिर होनेके पश्चात् एक मास तक बुलवुलेकी तरह रहता है । पुनः एक मास तक धनभूत अर्थात् कठोररूप रहता है। फिर एकमासमें मांसके पिण्डरूप होता है ।।१००२।।
गापाँचवें मासमें उस मांसपिण्डमेंसे दो हाथ, दो पैर और सिरके रूपमें पाँच अंकुर उगते हैं । छठे मासमें उस बालकके अंग और उपांग बनते हैं ॥१००३।।
विशेषार्थ-दो पैर, दो हाथ, एक नितम्ब, एक छाती, एक पीठ, एक सिर ये आठ अंग हैं । और कान, नाक, गाल, ओठ, आँख, अँगुलि आदि उपांग हैं ॥१००३।।
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