________________
५१८
भगवती आराधना
पढमे सोयदि वेगे दट्टु तं इच्छदे विदियवेगे ।
स्सिदि तदियवेगे आरोहदि जरो चउत्थम्मि ||८८७ ||
'पढमे सोयदि वेगे' प्रथमे वेगे शोचति । द्वितीये वेगे स तं द्रष्टुमिच्छति । निःश्वसिति च तृतीये वेगे । आरोहति ज्वरश्चतुर्थे वेगे ||८८७॥
उज्झदि पंचमवेगे अंगं छट्ठे ण रोचदे भत्तं । उम्मत्तो होइ अट्टमए ||८८८||
मुच्छिज्जदि सत्तम
'उज्झदि पंचमवेगे' पञ्चमवेगेऽङ्गं दह्यते । भक्तारुचिः षष्ठे वेगे । सप्तमवेगे मूर्च्छति । उन्मत्तो भवत्यष्टमे ॥ ८८८||
नवमे ण किंचि जाणदि दसमे पाणेहिं मुच्चदि मदंधो ।
संकप्पवसेण पुणो वेगा तिव्वा व मंदा वा ॥ ८८९ ॥
नवमे नात्मानं वेत्ति । दशमे वेगे प्राणैविमुच्यते । मदान्धस्य संकल्पवशेन पुनस्तीव्रा मन्दा वा भवन्ति वेगाः ||८८९ ||
जेट्ठामूले जोहे सूरो विमले हम्मि मज्झरहे |
ण डहदि तह जह पुरिसं डहदि विवंतओ कामो ॥ ८९० ॥
'जेट्ठामूले' ज्येष्ठमासे शुक्लपक्षे विमले नभसि मध्याह्ने रविः स न दहति तथा यथा पुरुषं दहति प्रवर्द्ध
मानः कामः ॥ ८९० ॥
सूरग्गी डहदि दिवा रतिं च दिया य डहह कामग्गी । सूरस अस्थि उच्छागारो कामग्गणो णत्थि ॥ ८९१ ।।
'सूरग्गी डहदि दिया' सूर्याग्निर्दहति दिवा, नक्तं दिवा दहति कामाग्निः । सूर्यस्याच्छादनकारी छत्रादिकमस्ति न कामाग्नेः ॥ ८९१ ॥
गा० – कामके प्रथम वेगमें सोचता है जिसको देखा या सुना उसके बारेमें चिन्ता करता है । दूसरे वेगमें उसे देखनेकी इच्छा करता है । तीसरे वेगमें दीर्घ निश्वास लेता है । चतुर्थ वेगमें शरीरमें ज्वर चढ़ जाता है ||८८७||
गा० - पाँचवें वेगमें अंग जलने लगते हैं। छठे वेगमें भोजन नहीं रुचता । सातवें वेगमें मूर्च्छित हो जाता है । आठवें वेगमें उन्मत्त हो जाता है ||८८८||
गा० - नौवें वेगमें अपनेको भी नहीं जानता । दसवें वेगमें मर जाता है । इस प्रकार कामान्ध पुरुषके संकल्पवश तीव्र या मन्द वेग होते हैं ॥ ८८९ ॥
गा०—ज्येष्ठमासके शुक्लपक्ष में मध्याह्नकालमें आकाशके निर्मल रहते हुए सूर्य वैसा नहीं जलाता जैसा पुरुषको प्रज्वलित काम जलाता है ||८९० ॥
Jain Education International
-सूर्य अग्नि तो केवल दिनको ही जलाती है किन्तु कामाग्नि रात दिन जलाती है । सूर्यके तापसे बचने के उपाय तो छाता आदि हैं किन्तु कामाग्निका कोई उपाय नहीं है ||८९१ ॥
-oll
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org