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विजयोदया टोका 'लोभे पड्ढिवे पुण' लोभे प्रकर्षेण वृद्धिमुपगते पुनः । 'कज्जाकजं णरो ण चिदेदि' कार्य अकार्य च न मनसा निरूपयति । इदं कर्तुं युक्तं न वेति । 'तो' ततः युक्तायुक्तविचारणाभावात् । 'अप्पणो मरणमपि अगणित्ता' आत्मनो मृत्युमप्यगणय्य । 'चोरियं कुणदि' चौयं करोति । बन्दीग्रहणतालोद्धाटनसंप्रवेशादिक च भयं मृत्योः कष्टतरमवस्थितमपि न गणयति नरश्चौर्ये प्रवृत्त इति भावः ॥८५१॥ न केवलमात्मन एवोपद्रवकारि चौर्य अपि तु परेषामपि महतीमानयति विपदमिति कथयति
सव्वो उवहिदबुद्धी पुरिसो अत्थे हिदे य सव्वो वि ।
सत्तिप्पहारविद्धो व होदि हिययंमि अदिदुहिदो ||८५२।। 'सव्वो उहिदबुद्धी' सर्वो जनः उपहितबुद्धिः स्थापितचित्तः । क्व ? 'अत्थे' वस्तुनि इदं भवत्विति । 'अत्थे हिवे य सम्वो वि' सर्वोऽपि जनो अर्थे हृते । 'अतिहिदो' अतीव दुःखितो भवति । किमिव ? 'सत्तिप्पहारविद्धोव हिदय' शक्त्याख्येन शस्त्रेण हृदये विद्ध इव ॥८५२॥
अत्थम्मि हिदे पुरिसो उम्मत्तो विगयचेयणो होदि ।
मरदि व हक्कारकिदो अत्थो जीवं खु पुरिसस्स ।।८५३।। 'अत्यम्मि हिवे' अर्थे हृते परेणात्मीये 'पुरिसो' पुरुषः । 'उम्मत्तो विगदचेयणो होवि' उन्मत्तो विगतचेतनो भवति । चेतनाविशेषे ज्ञानपर्याये चेतनाशब्दो वर्तते नष्टज्ञानो भवतीति यावत् । अन्यथा चैतन्यरय विनाशाभावात् । 'मरदि व' म्रियेत वा अर्थे हृते । अत्थे हक्कारकिदो अर्थे 'हाकारं कुर्वन् । 'अत्यो जीवं खु पुरिसस्स' पुरुषस्य जीवितमर्थः ।।८५३।। का लोभ बढ़ता है । लोभ बढ़नेपर यह दोष होता है--
गाo-टी०-लोभ बढ़नेपर मनुष्य 'यह करना योग्य है और यह योग्य नहीं है' इस प्रकार मनमें कार्य और अकार्यका विचार नहीं करता। युक्त अयुक्तका विचार न करनेसे अपनी मृत्युकी परवाह न करके चोरी करता है-ताले तोडकर घरोंमें प्रवेश करता है, जेल जाता है। इस प्रकार चोरीमें लगा मनुष्य मृत्युका कठोर भय उपस्थित होते हुए भी उसको अवहेलना करता है ॥८५१॥
__ आगे कहते हैं कि चोरी केवल चोरी करनेवालेपर ही विपत्ति नहीं लाती किन्तु दूसरोंपर भी महती विपदा लाती है
गा०–सभी मनुष्य धनासक्त हैं-उनका मन धनमें लगा रहता है। अतः धन चुरानेपर सभी जन हृदयमें शक्ति नामक अस्त्रसे आघात होनेकी तरह अत्यन्त दुःखी होते हैं ।।८५२।।
गा०-टी०-दूसरेके द्वारा अपना धन हरे जानेपर मनुष्य पागल हो जाता है, उसकी चेतना नष्ट हो जाती है। यहाँ चेतना शब्द चेतनाके भेद ज्ञानपर्यायमें प्रयुक्त हुआ है अतः उसका ज्ञान नष्ट हो जाता है ऐसा अर्थ लेना चाहिए, क्योंकि चेतनाका तो विनाश होता नहीं । तथा हाहाकार करके मर जाता है । ठोक ही कहा है-धन मनुष्यका प्राण है ।।८५३।।
१. हारवं-आ० मु० ।
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