________________
विजयोदया टीका
४९९ कारितोऽनुमतश्च । इममस्मिन्नसंयमे प्रवर्तयामि अनेन वचनेन प्रवृत्तं वानुजानामि । इत्यभिसन्धिमन्तरेण' तस्य वचनस्याप्रवत्तेस्तद्वचनकारणभूतोऽभिसन्धिरात्मपरिणामो भवति कर्मनिमित्तमिति परिहार्यस्तस्य परिहारे तत्कायं वचनमपि परिहृतं भवति । न ह्यसति कारणे कार्यप्रतिपत्तिरित्यसद्वचनपरिहारोऽनेन क्रमेणोपन्यस्त इति । स्वयमसद्वचनैकदेशपरिहारेऽप्यपहृतमसद्वचनं भवति इत्याशङ्कां परिहरति सर्वमिति चतुर्विधमिति तदीयभेदोपन्यासः । 'पयत्तेणेति' तत्र अप्रमत्ततामुपदिशति । 'धत्तं पि संजमंतो' नितरामपि संयममाचरन्नपि । 'भासादोसेण' भाषावचनं तन्निमित्तत्वाद्वाग्योगाख्य आत्मपरिणामो भाषाशब्देनोच्यते । भाषादुष्टः भाषादोषः । वाग्योगेन दुष्टेन निमित्तेन जातं यत्कर्म तेन । “लिप्पदि' लिप्यत एव संबध्यत एव आत्मा । एतेन कर्मबन्धनिमित्ततादोषकथनेन असद्वचनपरिहारे दाढयं करोति क्षपकस्य ॥८१७॥ प्रतिज्ञातं चातुर्विध्यं व्याचष्टे
पढमं असंतवयणं संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो ।
पत्थि णरस्स अकाले मच्चुत्ति जधेवमादीयं ॥८१८।। 'पढमं असंतवयणं' चतुषं आद्यमसद्वचनं 'संभूदत्थस्स होदि पडिसेहो' सतोऽर्थस्य प्रतिषेधः । सतां सतो न. वचनं असद्वचनमित्येकोऽर्थः । तस्योदाहरणमाह-'पत्थि परस्स अकाले मच्चुत्ति' एवमादिकं नास्त्यकाले मनुष्यस्य मृतिरिति एवमादिकं वचनं । आयुषः स्थितिकाल : काल इत्युच्यते । तस्मात्कालादन्यः कालोऽकालः । तस्मिन्नकाले । ननु च भोगभूमिनराणामनपवर्त्यमायुरतः अकाले मरणं नास्त्येव अतो युक्तमुच्यते णत्थि णरस्स
समाधान-असंयमके कृत कारित और अनुमतके भेदसे तीन प्रकार हैं। इस पुरुषको इस असंयममें प्रवत्त करता है अथवा असंयममें प्रवत्त पुरुषकी इस वचनके द्वारा अनुमोदना करता है। इस अभिप्रायके बिना उस प्रकारका वचन नहीं बोला जाता । अतः उस प्रकारके वचनमें कारणभूत आत्मपरिणाम कर्मबन्धमें निमित्त होता है अतः त्यागने योग्य है। उस परिणामके त्यागने पर उसका कार्य वचन भी त्यागा जाता है, क्योंकि कारणके अभावमें कार्य नहीं होता। इसलिए असत् वचनका त्याग कहा है । यदि कोई असत् वचनके एक देशका त्याग करे तब भी असत् वचनका त्याग हो जाता है क्या ? ऐसी आशंकाका परिहार करते हैं कि चारों ही प्रकारके असत्य वचनका त्याग प्रमाद छोड़कर करना चाहिए। क्योंकि अतिशय युक्त संयमका आचरण करता हुआ भी भाषादोषसे कर्मसे लिप्त होता है । यहाँ निमित्त होनेसे भाषा शब्दसे वचन योग रूप आत्मपरिणाम कहा है । दुष्ट भाषाको भाषा दोष कहते हैं। अतः दुष्ट वचनयोगके निमित्तसे जो कर्म बन्ध होता है उससे आत्मा लिप्त होता है। इससे असत्य वचनको कर्मबन्धमें निमित्त होनेका दोष बंतलाकर उसके त्यागमें क्षपकको दृढ़ करते हैं ।।८१७।। __ असत्य वचनके चार भेद कहते हैं
गा०-टो०-चार भेदोंमें सद्भूत अर्थका निषेध करना प्रथम असत्य वचन है। जैसे मनुष्यकी अकालमें मृत्यु नहीं होती इत्यादि वचन। आयुके स्थिति कालको काल कहते हैं। उस कालसे अन्य कालको अकाल कहते हैं । उसमें मरण नहीं होता। ऐसा कहना सद्भूतका निषेध रूप . असत्यं वचन है।
शङ्का-भोगभूमिके मनुष्योंकी आयु अनपवर्त्य होती है अतः मनुष्योंका अकालमें मरण १. ण वास्य-आ० मु०। २. सतां सदेतत् वचनं सद्वचनमि-आ० । सतां सतो नमस-अ० ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org