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विजयोदया टीका. हिंसा कषायैः प्रवर्त्यते, ततोऽहिंसामिच्छता एते परिहर्तव्या इत्युत्तरसूत्रार्थम्
जीवो कसायबहुलो संतो जीवाण घायणं कुणइ ।
सो जीववह परिहरइ सया जो णिज्जियकसाओ ।।८११।। प्रमादो हिसायाः प्रवर्तकः स परित्याज्योऽहिंसावतार्थिना इति गाथार्थ:
आदाणे णिक्खेवे वोसरणे ठाणगमणसयणेसु । सव्वत्थ अप्पमत्तो दयावरो होइ हु अहिंसो ।।८१२॥ काएसु णिरारंभे फासुगभोजिम्मि णाणरइयम्मि ।
मणवयणकायगुत्तिम्मि होइ सयला अहिंसा हु ।।८१३।। परित्यक्तारम्भे य प्रासुकभोजिनि ज्ञानभावनावहितमनसि गुप्तित्रयोपेते सम्पूर्णा भवत्यहिंसा इति सूत्रार्थः ।।८१३॥
आरंभे जीववहो अप्पासुगसेवणे य अणुमोदो। ।
आरंभादीसु मणो णाणरदीए विणा चरइ ।।८१४॥ पृथिव्यादिविषयो व्यापार आरम्भः । तस्मिन्सति तदाश्रयप्राण्युपद्रव इति जीववधो भवति । उद्गमादिदोषोपहतस्य आहारस्य भोजने जीवनिकायवधानुमोदो भवति । ज्ञानरतिमन्तरेण आरम्भे कषाये च मनः प्रवर्तते ।।८१४॥
तम्हा इहपरलोए दुक्खाणि सदा अणिच्छमाणेण ।
उवओगो कायन्वो जीवदयाए सदा मुणिणो ॥८१५।। हिंसा कषायसे होती है। अतः अहिंसाके अभिलाषीको कषाय त्यागना चाहिए, यह कहते हैं
गा०-जो जीव कषायकी अधिकता रखता है वह जीवोंका घात करता है। और जो कषायोंको जीत लेता है वह सदा जीवोंकी हिंसासे दूर रहता है। अतः प्रमाद हिंसाका कारण है । अहिंसाव्रतके अभिलाषीको प्रमादको त्यागना चाहिए ॥८११॥
गा०-उपकरणोंको ग्रहण करनेमें, रखने में, उठने बैठने, चलने और शयनमें जो दयालु सर्वत्र यत्नाचारपूर्वक प्रवृत्ति करता है वह अहिंसक होता है ।।८१२।।
___ गा० . जो आरम्भका त्यागी है, प्रासुक भोजन करता है, ज्ञानभावनामें मनको लगाता है और तीन गुप्तियोंका धारी है वही सम्पूर्ण अहिंसाका पालक है यह उक्त गाथासूत्रका अर्थ है ॥८१३।।
गा०-टी०-पृथिवी आदिके विषयमें जो खोदना आदि व्यापार किया जाता है उसे आरम्भ कहते हैं । उसके करने पर पृथिवी आदिमें रहने वाले जीवोंका घात होता है। उद्गम आदि दोषोंसे युक्त आहार ग्रहण करने पर जीव समूहके वधकी अनुमोदना होती है, ज्ञानमें लीनता न होने पर आरम्भ और कषायमें मनकी प्रवृत्ति होती है ।।८१४||
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