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विजयोदया टीका
५०३ तव्विवरीदं सच्चं कज्जे काले मिदं सविसए य ।
भत्तादिकहारहियं भणाहि तं चेव य सुणाहि ।।८२८।। 'तविवरीदं' असद्वचनविपरीतं । 'सच्च' सत्यं । 'भणाहि' भण। 'कज्जे' कार्ये ज्ञानचारित्रादि शिक्षालक्षणे, असंयमपरिहारे परस्य वा सन्मार्गस्थापनारूपे। काले आवश्यकादीनां कालादन्यः काल इत्यकालशब्देनोच्यते । अथवा कालशब्देन प्रस्ताव उच्यते । 'मिदं' परिमितं वचन । 'सविसए य' भवतो ज्ञानस्य विषये प्रवृत्तं वचनं । 'भणाहि भण । ज्ञानमेव वचनानीति यावत् । भत्तादिकथारहिदं भक्तचोरस्त्रीराजकथादिरहितं । 'तं चेव य' तथाभतमेव सत्यमेव वचनं । 'सुणाहि' श्रुणु । अयमयोग्यं न ब्रवीति एतावता सत्यव्रतं पालितमिति . आशा न कार्या। परेणोच्यमानमसद्वचनं शृण्वतो मनोऽशुभतया च कर्मबन्धो महानिति भावः ॥८२८॥ . सत्यवचनगुणं हृदयनिर्वाणं ख्यापयति गाथोत्तरा स्पष्टा
जलचंदणससि मुत्ताचंदमणी तह णरस्स णिव्वाणं ।
ण करंति कुणइ जह अत्थज्जुयं हिदमधुरमिदवयणं ।।८२९।। न सत्यमित्येतावता वचनं वक्तव्यं, सत्यमेव सदेव वक्तव्यमेव नेति ब्रवीति
अण्णस्स अप्पणो वा वि धम्मिए विद्दवंतए कज्जे ।
जं पि अपुच्छिज्जंतो अण्णोहिं य पुच्छिओ जंप ||८३०।। 'अण्णस्य अप्पणो वापि' अन्यस्य आत्मनो वा धार्मिके कार्ये विनश्यति सति अपृष्टोऽपि ब्रूहि । अनतिपातिनि कार्ये पृष्ट एव वद नापृष्टः इत्यर्थः ॥८.३०॥
गा०-टी०-हे क्षपक, ज्ञान चारित्र आदिकी शिक्षारूप कार्यमें, असंयमका त्याग कराने या दूसरेको सन्मार्गमें स्थापित करनेके कार्यमें, आवश्यक आदिके काल से भिन्नकालमें, और ज्ञानके विषयमें असत्यवचनसे विपरीत सत्यवचन बोलो। तथा भक्तकथा, स्त्रीकथा, चोरकथा और राजकथासे रहित वचन बोलो--इन कथाओंकी चर्चा मत करो। तथा इसी प्रकारके सत्य वचनोंको सुनो । अमुक-वक्ता अयोग्य बात नहीं बोलता अतः यह सत्यव्रतका पालक है ऐसी आशा मत करो। दूसरेके द्वारा कहे असत्यवचनको जो सुनता है उसका मन बुरा होता है और मनके बुरे होनेसे महान् कर्मबन्ध होता है ।।८२८॥
आगे सत्यवचनका गुण हृदयको सुख देना है, यह कहते हैं
गा०--अर्थसे भरे हितकारी परिमित मधुर वचन इस जीवको जैसा सुख देते हैं वैसा सुख जल, चन्दन, चन्द्रमा, मोती और चन्द्रकान्तमणि भो नहीं देते ।।८२९॥
आगे कहते हैं कि सत्य होनेसे बोलना चाहिए ऐसी बात नहीं है और सदा सत्य बोलना ही चाहिए ऐसी भी बात नहीं है
गा०-अपना या दूसरोंका धार्मिक कार्य नष्ट होता हो तो विना पूछे भी बोलना चाहिए। किन्तु यदि कार्य नष्ट न होता हो तो पूछनेपर ही बोलों, विना उनके द्वारा पूछे जानेपर मत बोलो ।।८३०॥
१. मुत्तामणिमाला तह-आ० ।
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