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भगवतो आराधना
तम्हा तस्मात् । आरम्भो भवता त्याज्यः, प्रासुकभोजनं भोज्यं, ज्ञाने अरतिश्च अपाकार्या इति क्षपकशिक्षा । अहिंसा जीवदया तस्याः फलमुपदर्शयति-तम्हा इत्यनया उभयलोकगतदुःखपरिहारमिच्छता दयाभावना कार्या इति कथयति क्षपकस्य ।।८१५॥ स्वल्पकालवर्त्यपि अहिंसाव्रतं करोत्यात्मनो महान्तमुपकारमित्याख्यानं कथयति
पाणो वि पाडिहेरं पत्तो छूढो वि सुंसुमारहदे ।
एगेण एक्कदिवसकदेण: हिंसावदगुणेण ||८१६॥ 'पाणो वि' चण्डालोऽपि 'पाडिहेरं' प्रातिहायं 'पत्तो' प्राप्तः । 'सुंसुमारहदे छूढो' शिशुमाराकुले न्हदे निक्षिप्तोऽपि । 'एक्केण हिसावदगुणेण' एकेनैव अहिंसावताख्येन गुणेन । 'अप्पकालकदेन' अल्पकालकृतेन । अहिंसा ॥८१६॥ द्वितीयव्रतनिरूपणाय उत्तरप्रबन्धः
परिहर असंतवयणं सव्वं पि चदुविधं पयरेण ।
धत्तं पि संजमित्तो भासादोसेण लिप्पदि हु ।।८१७॥ 'परिहर' परित्यज । 'असंतवयणं' असद् अशोभनं वचनं । यत्कर्मबन्धनिमित्तं वचस्तदशोभनं । तथा चोक्तं-'असदभिधानमन्तं [त. सू०७] । ननु वचनमात्मपरिणामो न भवति । द्रव्यान्तरं हि तत्पुद्गलाख्यं, आत्मपरिणामो हि परित्याज्यो यो बन्धस्य बन्धस्थितेर्वा निमित्तभूतो मिथ्यात्वमसंयमः कषायो योग इत्येवंप्रकारः। तस्मादसद्वचनपरिहारोपदेशोऽनुपयोगी कस्मात्कृत इति अत्रोच्यते- असंयमो हि त्रिप्रकारः कृतः
गा०-अतः इस लोक और परलोकमें दुःखको नहीं चाहने वाले मुनिजनोंको सदा जीव दयामें उपयोग लगाना चाहिए और उसके लिए आरम्भ त्यागना चाहिए, प्रासुक भोजन करना चाहिए और ज्ञानमें मन लगाना चाहिए। आचार्य क्षपकको यह उपदेश करते हैं ।।८१५।।
थोड़े समयके लिए पाला गया भी अहिंसा व्रत आत्माका महान् उपकार करता है यह दृष्टान्त द्वारा कहते हैं
- गा०—यमपाल चण्डाल भी एक चतुर्दशीके दिन किसोको फाँसी न देनेके एक अहिंसावतके गुणसे मगरमच्छोंसे भरे तालाबमें फेक दिए जाने पर प्रातिहार्यको प्राप्त हुआ-देवोंने उसकी पूजा की ॥८१६॥
अहिंसाव्रतका कथन समाप्त हुआ। . दूसरे सत्यव्रतका कथन आगे करते हैं
गा०-टी०-असत् अर्थात् अशोभन वचन मत बोलो। जो वचन कर्मबन्धमें निमित्त होता हैं उसे अशोभन कहते हैं । कहा है-असत् वचन बोलना असत्य है।
. शंका-वचन आत्माका परिणाम नहीं हैं, पुद्गल नामक अन्य द्रव्य है। कर्मबन्ध या कर्म स्थितिके बन्धमें निमित्त मिथ्यात्व, असंयम, कषाय योग, इस प्रकारका आत्मपरिणाम त्यागने • योग्य है । अतः असत् वचनके त्यागका उपदेश उपयोगी नहीं है उसे क्यों कहा?
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