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विजयोदया टोका 'जीवगदमजीवगदं इति' जीवगत इति जीवपर्याय उच्यते । न हि जीवद्रव्यत्वमात्रमेव हिंसायां उपकरणं भवति । किन्तु जीवस्य पर्यायः आस्रवस्य हिंसादेर्जीवपरिणामो युक्तोऽभ्यन्तरकारणं । अजीवगतः पर्यायः द्रव्यत्वाख्यः सदा सन्निहितकार्यः स्यात्कादाचित्कतां कथमिव सम्पादयति । पर्यायस्तु स्वकारणसान्निध्याकदाचिदेवेति । यदा स्वयं सन्ति सन्निहितसहकारिकारणास्तदैव स्वकार्य कुर्वन्ति नान्यदेति युक्ता कादाचित्कता कार्यस्येति भावः । 'समासदो दुविधमधिकरणं संक्षेपतो द्विविधं हिंसाधिकरणं 'अठुत्तरसयभेदं' अष्टोत्तरशतभेदं । 'पढम जीवगदमधिकरणं' प्रथमं जीवगतमधिकरणं । 'विदियं' द्वितीयं अजीवगतमधिकरणं 'चदुब्भेदं' चतुर्विकल्पं ॥८०४॥ प्रथमस्य भेदान्निरूपयति-
. . संरंभसमारंभारंभं जोगेहिं तह कसाएहिं ।
कदकारिदाणुमोदेहिं तहा गुणिदा पढमभेदा ॥८०५।। 'सरंभसमारंभारंभजोहि तह कसाएहि' प्राणव्यपरोपणादी प्रमादवतः संरम्भः। साध्याया हिंसादिक्रियायाः साधनानां समाहारः समारम्भः । सञ्चितहिंसाधुपकरणस्य आद्यः प्रक्रम आरम्भः । योगशब्देन मनोवाक्कायव्यापारा उच्यन्ते । एतैः संरम्भसमारम्भारम्भयोगः । 'तधा' तथा 'कसाएहि कषायैः 'कदकारिदाणमोदेहि' कृतकारितानुमोदितः । 'तहा गुणिदा' तथा गुणिताः। 'पढमभेदा' जीवाधिकरणभेदाः । प्रयत्नपूर्वकत्वाच्चेतनावतो व्यापारस्यादौ संरंभस्य वचनं । अनुपाया साध्यसिद्धिर्न भवति प्रयत्नवतोऽपि ततः साधनसमाहरणं प्रयत्नादनन्तरमिति समारम्भो युक्तः । साध्यं पुनः उपसाधनसंहतौ सत्यां प्रक्रमते क्रियामिति आरम्भः
गा०-टो०-अधिकरणके दो भेद हैं-जीवगत और अजीवगत । जीवगतका अर्थ है जीवपर्याय । केवल जीवद्रव्य हिंसामें सहायक नहीं होता किन्तु जीवको पर्याय होती है। हिंसा आदिसे युक्त जीवका परिणाम हिंसाका अभ्यन्तर कारण होता है। इसी तरह अजीवगतसे अजीवपर्याय लेना चाहिए; क्योंकि अजीवद्रव्य तो सदा रहनेसे सदा कार्यकारी रहता है अतः कार्य सदा होता रहेगा । किन्तु पर्याय तो अपने कारणोंके होने पर ही होती है अतः कदाचित् होती है। जब सहकारी कारण होते हैं तभी अपना कार्य करते हैं, अन्य कालमें नहीं करते । अतः कार्य सदा न होकर कदाचित् होता है।
इस तरह संक्षेपसे अधिकरणके दो भेद हैं। उनमेंसे प्रथम जीवाधिकरणके एक सौ आठ भेद हैं और दूसरे अजीवाधिकरणके चार भेद हैं ।।८०५।।
जीवाधिकरणके भेद कहते हैं
गा०-टी०-प्राणोंके घात आदिमें प्रमाद युक्त व्यक्ति जो प्रयत्न करता है वह संरंभ है। साध्य हिंसा आदि क्रियाके साधनोंको एकत्र करना समारंभ है । हिंसा आदिके उपकरणोंका संचय हो जाने पर हिंसाका आरम्भ करना आरम्भ है। योग शब्दसे मन वचन और कायका व्यापार लिया गया है । इन संरंभ, समारम्भ, आरम्भको, योग, कषाय और कृत कारित अनुमोदनासे गुणा करने पर जीवाधिकरणके भेद होते हैं।
चेतन जीवका व्यापार प्रयत्नपूर्वक होता है इसलिए प्रथम संरम्भ कहा है। प्रयत्न करनेपर भी उपायोंके बिना कार्यसिद्धि नहीं होती, अतः संरम्भके पश्चात् समारम्भ कहा है । साधनोंके एकत्र होनेपर कार्य प्रारम्भ होता है। अतः समारम्भके पश्चात् आरम्भको रखा है । जीवके द्वारा
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