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विजयोदया टोका अहिंसाव्रतमहत्तां निवेदयन्ति
णत्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि ।
जह जह जाण महल्लं ण वयमहिंसासमं अस्थि ।।७८३।। 'णथि अणूदो अप्पं' नास्त्यणोरल्पं अन्यत्किचिद्रव्यं । 'आयासादो अणूणयं णत्थि' । आकाशाद्वा अन्यन्महन्नास्ति यथा तथान्यद्वतं अहिंसातो महन्नास्ति ॥७८३॥
जह पव्वदेसु मेरू उच्चावो होइ सव्वलोयम्मि ।
तह जाणसु उच्चायं सीलेसु वदेसु य अहिंसा ॥७८४॥ 'जह पञ्चदेसु' सर्वस्मिल्लोके पर्वतेभ्यो मेरुयंथाच्चैस्तथा अहिंसा शीलेषु व्रतेषु च उन्नततमेति जानीहि ।।७८४॥ व्रतानां, शीलानां, गुणानां च अधिष्ठानमहिंसेति वदन्ति
सव्वो हि जहायासे लोगो भृमीए सव्वदीउदधी ।
तह जाण अहिंसाए वदगुणशीलाणि तिट्ठति ।।७८५।। यथा सर्वलोक ऊर्ध्वाधरितर्यग्विकल्पः आकाशाधिकरणः । भूमौ च समवस्थिताः सर्वे द्वीपा उदधयश्च । तथैव 'जाण' जानीहि । व्रतगुणशीलान्यहिंसायां तिष्ठन्ति इति ॥७८५।।
कुव्वंतस्स वि जत्तं तुंबेण विणा ण ठंति जह अरया ।
अरएहिं विणा य जहा णटुं णेमी दु चक्कस्स ||७८६।। 'कुव्वंतस्स वि जत्तं' यत्नं कुर्वतोऽपि । तुम्बमन्तरेण यथा न तिष्ठन्त्यराणि । अरैविना नेम्यवस्थानं चक्रस्य यथा नास्ति ॥७८६॥
तह जाण अहिंसाए विणा ण सीलाणि ठंति सव्वाणि ।
तिस्सेव रक्खणठं सीलाणि वदीव सस्सस्स ।।७८७।। 'तह जाण' तथैव जानीहि । अहिंसां विना सर्वाणि शीलानि न तिष्ठन्ति इति । अहिंसाया एव रक्षार्थ शीलानि वृतिरिव सस्यस्य ॥७८७।।
गा०-जैसे अणुसे छोटा कोई अन्य द्रव्य नहीं है और आकाशसे बड़ा कोई नहीं है वैसे ही अहिंसासे महान् कोई अन्य व्रत नहीं है ॥७८३।।
गा०--जैसे सब लोकमें मेरु सब पर्वतोंसे ऊँचा है वैसे ही शीलों और व्रतोंमें अहिंसा सबसे ऊँची है ॥७८४॥
अहिंसा व्रतों शीलों और गुणोंका अधिष्ठान है, ऐसा कहते हैं
गा०-जैसे ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोकके भेदसे सब लोक आकाशके आधार हैं और सब द्वीप और समुद्र भूमिके आधार हैं वैसे ही व्रत गुण और शील अहिंसाके आधार रहते हैं ।।७८५॥
गा०-लाख प्रयत्न करनेपर भी जैसे चकेके आरे तुम्बीके विना नहीं ठहरते और आरोंके विना नेमि नहीं ठहरती, वैसे ही अहिंसाके विना सब शील नहीं ठहरते । उसीकी रक्षाके लिए शील हैं जैसे धान्यकी रक्षाके लिए बाड़ होती है ।।७८६-७८७।।
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