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विजयोदया टोका
४८३ गहदीपज्योतिषाख्यस्तरुभिस्तत्र जीविकाः ॥ पुरग्रामादयो यत्र न निवेशा न चाधिपाः । न कुलं कर्म शिल्पानि न वर्णाश्रमसंस्थितिः ।। यत्र नार्यो नराश्चैव मैथुनीभूय नीरुजाः। रमन्ते पूर्वपुण्यानां प्राप्नुवन्तः परं फलं ॥ यत्र प्रकृतिभद्रत्वात् दिवं यान्ति मृता अपि । ता भोगभूमयश्चोक्तास्तत्र स्पुर्भोगभूमिजाः ॥ अभाषका एकोरुका लागलिकविषाणिकाः । आदर्शमुखाहस्त्यश्वविधुदुल्कमुखा अपि ॥ हयकर्णा गजकर्णाः कर्णप्रावरणास्तथा । इत्येवमादयो ज्ञया अन्तरद्वीपजा नराः॥ समुद्रद्वीपमध्यस्थाः कन्दमूलफलाशिनः। वेदयन्ते मनुष्यायुस्ते मृगोपमचेष्टिताः ।। कर्मभूमिषु चक्रास्त्रहलभृद्भरिभूभुजां । स्कंधावारसमूहेषु प्रस्रावोच्चारभूमिषु ।। शुक्रसिंघाणकश्लेष्मकर्णदन्तमलेषु च । अत्यन्ताशुचिदेशेषु सद्यःसम्मुर्छनेन ये ॥ भूत्वामुलस्यासंख्येयभागमात्रशरीरकाः।
आशु नश्यन्त्यपर्याप्तास्ते स्युः सम्मूच्छिमा नराः ॥ एतेषु कर्मभूमिजमानवानां एव रत्नत्रयपरिणामयोग्यता नेतरेषां इति तदेव मनुजजन्म गृह्यते । लब्धेऽपि
जहाँ मनुष्य मद्य, तूर्य, वस्त्र, आहार, पात्र, आभरण, माला, घर, दीप और ज्योति प्रदान करने वाले दस प्रकारके कल्प वृक्षोंसे जीवन यापन करते हैं, जहाँ पुर ग्राम आदि नहीं होते, न राजा होते हैं न कुल, न कर्म और न. शिल्प होता है, न वर्ण और आश्रमका चलन होता है, जहाँ स्त्री और पुरुष निरोग रहकर पति पत्नी की तरह रमण करते हुए पूर्व जन्ममें किये पुण्य कर्मका फल भोगते हैं, और जो स्वभावसे ही भद्र होनेके कारण मरकर भी स्वर्गमें जाते हैं वे भोगभूमियाँ कही हैं। उनमें जन्म लेने वाले मनुष्य भोगभूमिज होते हैं। अभाषका-जो भाषा नहीं जानतेमूक रहते हैं, एकोरुका-जिनके एक पैर होता है, लांगूलिका जिनके पूछ होती है, विषाणिकाजिनके सींग होते हैं, आदर्शमुखा-जिनका मुख दर्पण की तरह होता है, हस्तिमुखा-हाथी की तरह मुख वाले, अश्वमुख-घोड़ेकी तरह मुखवाले, विद्युन्मुख, विजलीकी तरह मुखवाले, उल्कामुख, हयकर्ण-घोड़ेकी तरह कानवाले, गजकर्ण-हाथीकी तरह कान वाले, कर्ण प्रावरण-कान ही जिनका आवरण है, इत्यादि अन्तर्वीपज मनुष्य होते हैं। ये समुद्रके द्वीपोंके मध्यमें रहते हैं, कन्दमल फल खाते हैं, तथा हिरनोंकी तरह चेष्टा करते हए मनुष्याय भोगते हैं। के चक्रवर्ती, बलदेव, राजाओंकी सेनाके पड़ावोंमें मलमूत्र त्यागनेके स्थानोंमें, वीर्य, नाकके मल, कफ़, कान और दाँतोंके मलमें और अत्यन्त गन्दे प्रदेशोंमें शीघ्र ही सम्मूर्छन जन्मसे उत्पन्न होकर तत्काल ही अपर्याप्त दशामें मरणको प्राप्त होनेवाले सम्मूर्छन मनुष्य होते हैं । उनका शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग मात्र होता है । इन चार प्रकारके मनुष्योंमेंसे कर्मभूमि मनुष्योंमें ही रत्नत्रय
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