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भगवती आराधना अहिंसाव्रतमन्तरेणेतरेषां नष्फल्यमाचष्टे
शीलं वदं गुणो वा णाणं णिस्संगदा सुहच्चाओ।
जीवे हिंसंतस्स हु सव्वे वि णिरत्थया होंति ॥७८८।। शीलादीनि हि संवरनिर्जरां चोद्दिश्यानुष्ठीयन्ते । हिंसायां तु सत्यां न स्तः फलभूते संवरनिर्जरे मुक्त्युपायभूते इति निष्फलता मन्यते ॥७८८।।
सव्वेसिमासमाणं हिदयं गब्भो व सव्वसत्थाणं ।
सव्वेसिं वदगुणाणं पिंडो सारो अहिंसा हु ।।७८९॥ 'सवेसिमासमाणं' सर्वेषामाश्रमाणां हृदयं शास्त्राणां गर्भः । सर्वेषां व्रतानां गुणानां च पिण्डीभूतसारो भवत्यहिंसा ॥७८९।।
जम्हा असच्चवयणादिएहिं दुक्खं परस्स होदित्ति ।
तप्परिहारो तम्हा सव्वे वि गुणा अहिंसाए ॥७९०॥ 'जम्हा असच्चवयणादिहि' यस्मादसत्यवचनेन, अदत्तादानेन, मथुनेन, परिग्रहेण च परस्य दुःखं भवति । तस्मात्तेषां असत्यवचनादीनां परिहार इति सर्वेऽपि अहिंसाया गुणाः ।
गोबंभणित्थिवघमेतणियत्ति जदि हवे परमधम्मो ।
परमो धम्मो किह सो ण होइ जा सव्वभूददया ॥७९१॥ 'गोबंभणित्थिवधमेत्तणियत्ति' गवां, ब्राह्मणानां, स्त्रीणां च वधमात्रनिवृत्तिर्यदि भवेदुत्कृष्टो धर्मः परमो धर्मः कथं न भवति या सर्वजीवदया ।।७९१॥
हिंसानिवृत्ति उपायेन कारयन्ति कृतापकारानपि वान्धवान्स्नेहान्न मारयितुमीहते जनः। 'तवपुरसअहिंसावतके विना शील आदिकी निष्फलता बतलाते हैं
गा०-जीवोंकी हिंसा करनेवालेके शील, व्रत, गुण, ज्ञान, निःसंगता और विषय सुखका त्याग ये सभी ही निरर्थक होते हैं ।।७८८॥
विशेषार्थ-शील आदि संवर और निर्जराके उद्देशसे किये जाते हैं। हिंसाके होते हुए मुक्तिके उपायभूत संवर निर्जरारूप फल नहीं होते । इसलिए निष्फल कहा है ।।७८८।।
__गा०-सब आश्रमोंका हृदय, सब शास्त्रोंका गर्भ और सब व्रतों और गुणोंका पिण्डीभूत सार अहिंसा ही है ।।७८९।।
गा०—यतः असत्य बोलनेसे, विना दी हुई वस्तुके ग्रहणसे, मैथुनसे, और परिग्रहसे दूसरोंको दुःख होता है । इसलिए उन सबका त्याग किया जाता है । अतः वे सब सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह अहिंसाके ही गुण हैं ||७९०॥
गा०-यदि गौ, ब्राह्मण और स्त्रियोंके वधमात्रसे निवृत्ति उत्कृष्ट धर्म है तो सब प्राणियोंपर दया परमधर्म क्यों नहीं है ? |७९१।।
लोग सावधानीपूर्वक हिंसासे बचते हैं। अपकार करनेवाले भी बन्धु-बान्धवोंको स्नेहवश १. तव पुरस्साउधर स-आ० ।
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