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भगवतो आराधनां
तस्मिन् ज्ञानावरणोदयाद्धिताहितपरीक्षायां समर्था बुद्धिर्न सुलभा । तया विना लब्धमपि मनुजजन्म विफलमेव दृष्टिरहितमिवायतं लोचनं, द्रविणसंपदं विना कुलीनत्वमिव, सुभगतासन्तरेण रूपमिव, यथार्थतारहितं वचनमिव, सत्यामपि मती यदि नाप्तानां वचः श्रुणुयात् सापि विफलैव सरोज रहिता सरसीव । इहापि श्रवणं आप्तवचनगोचरमेव गृहीतं, श्रवणमपि श्रद्धानरहितं सुलभमेव । इदं यथा येन प्रतिपादितं तथैवेति श्रद्धानं दुर्लभं दर्शनमोहोदयात् । सत्यपि श्रद्धाने चारित्रमोहोदयात् ज्ञातेऽभिरुचिते मार्गे प्रवृत्तिर्दुलभा । एवं 'दुरवज्जिदसामण्णं' दुःखेनार्जितश्रामण्यं । मा जहसु मा त्याक्षीः । 'तणं व अगणितो' तृणमिव अगणयन् ॥७८०॥ जीवघातदोषमाहात्म्यं कथयति गाथाद्वयेन
तेलोक्कजीविदादो वरेहि एक्कदरमत्ति देवेहिं । भणिदो को तेलोक्कं वरिज्ज संजीविदं मुच्चा ॥७८१।। जं एवं तेलोक्कं णग्धदि. सव्वस्स जीविदं तम्हा ।
जीविदघादो जीवस्स होदि तेलोक्कघादसमो ॥७८२।। त्रैलोक्यजीवितयोरेकं गृहाणेति देवैश्वोदितः कस्त्रलोक्यं वृणीते 'स्वजीवितं त्यक्त्वा, जीवनमेव ग्रहीतु वाञ्छति । यस्मादेवं त्रैलोक्यस्य मल्यं जीवितं सर्वप्राणिनस्तस्माज्जीवितघातो। जीवस्य [जीवितस्य । जीवादन्यत्रावृत्तेर्जीवस्येहवचनमनर्थकमिति चेन्न, उत्तरेण सम्बन्धात् । जीवस्य हंतुस्त्रैलोक्यघातसमो महान्दोषो भवतीति यावत् ।।७८१।। रूप परिणामों की योग्यता होतो है, शेष तीन में नहीं होती। इसलिये यहाँ उसी मनुष्य जन्मका ग्रहण होता है। उस मनुष्य जन्मको प्राप्त करके भी ज्ञानावरण कर्मके उदयसे हित अहितका विचार करनेमें समर्थ बुद्धि सुलभ नहीं है। उसके विना प्राप्त भी मनुष्य जन्म उसी प्रकार व्यर्थ है जैसे देखनेकी शक्तिसे रहित लम्बी आँखें, धन सम्पत्तिके बिना कुलीनता, सौभाग्यके बिना रूप,
और यथार्थतासे रहित वचन व्यर्थ हैं। बुद्धिके होनेपर भी यदि आप्त पुरुषोंका वचन न सुने तो वह बुद्धि भो कमलोंसे रहित सरोवरकी तरह निष्फल ही है। यहाँ श्रवण भी आप्तके वचन विषयक ही ग्रहण किया है। श्रद्धान रहित सुनना भी सुलभ ही है । 'जिसने जैसा कहा है वैसा ही है' इस प्रकारका श्रद्धान दर्शन मोहके उदयमें दुर्लभ है। श्रद्धान होने पर भी चारित्र मोहके उदयसे जाने हुए और रुचने वाले मार्गमें प्रवृत्ति दुर्लभ है। इस प्रकार बड़े कष्टसे प्राप्त मुनिधर्मको तृणकी तरह मानकर त्यागना नहीं ॥७८०॥
टो०-आगे दो गाथाओंसे जीवघातसे हुए दोषका महत्त्व बतलाते हैं
गा०-तीनों लोक और जीवनमेंसे एकको स्वीकार करो ? ऐसा देवोंके द्वारा कहे जानेपर न प्राणी अपना जीवन त्यागकर तीनों लोकोंको ग्रहण करेगा? अत: इस प्रकार सब प्राणियोंके जीवनका मूल्य तीनों लोक है अतः जीवका घात करनेवालोंको तीनों लोकोंका घात करनेके समान दोष होता है।
शङ्का-जीवितपना जीवको छोड़कर अन्यत्र नहीं रहता अत: 'जीवस्स' यह वचन व्यर्थ है ?
समाधान-गाथामें आये जीवस्सका सम्बन्ध आगेके कथनसे है-जीवके घातकको तीनों लोकोंके घातके समान दोष होता है ।।७८१-७८२।।
१. ते जीवस्य जी-मु० । २. स्यैव व-अ० ।
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