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विजयोदया टीका
४८१ तण्हाछुहादिपरिदाविदो वि जीवाण घादणं किच्चा ।
पडियारं कादु जे मा तं चिंतेसु लभसु सदि ।।७७७॥ 'तण्हाछुहादिपरिदाविदो वि' तृषा, क्षुधा, रोगेण, शीतेन, आतपेन बाधितोऽपि सन् । 'जीवाणं घादणं किच्चा' जीवानामपघातं कृत्वा । 'पडिगारं काहूँ जे' तुडादीनां प्रतिकारं कर्तुं । 'तं मा चितेहि' मा कार्षीश्चित्तं । 'लभस सदि' लभस्व स्मृति । पिबामि हिमशोतलं जलं कर्पूरक्षोदवासितं । अगाधं वा सरः सुरभितरोत्पलरजोवगंठितं प्रविश्य मदान्धसिन्धुर इव निमज्जनोन्मज्जने करोमि । ललाटे, शिरसि, पृथुले चोरस्थले करकप्रकरनिपातो यदि स्याद्भद्रं भवेत् । कल्हारसिकताधिकपल्लवशयनादिलाभे वा जीवामि इति वा । आतपति वा दिवानिशं तर्ष । अपसारिततीक्ष्णकरकरनिकुरुंबमिति व्यजनतालवृन्तसमुपनीतशीतमारुतापातेन श्रममशेषमपाकुर्वन्तु भवन्तः । हिमानी पततु । वान्तु वा मातरिश्वान इति वा । भ्राष्ट्रपक्वानपूपान्सुरभिघृतार्द्वान् भक्षयामीति । सम्यक् क्वथितं क्षीरं शर्करामिथं सुखोष्णं पिबामीति वा । धगधगायमानं खादिरमग्नि कूत । शीतेन स्फुटन्ति ममाङ्गगानि इत्येवमादिका प्रतिक्रिया मनसि न कार्येत्यर्थः । असद द्योदया सनौ महति निपतति, को नु तस्य प्रतीकारः ? तदुपशमकालभाविन एव बाह्यद्रव्यसंपाद्याः प्रतीकारा इति मनो निधेहि ॥७७७॥
रदिअरदिहरिसभयउस्सुगत्तदीणत्तणादिजुत्तो वि ।
भोगपरिभोगहेदु मा हु विचिंतेहि जीववहं ॥७७८॥ ‘रदिअरदिहरिसभयउस्सुगत्तदोणताणादिजुत्तोऽवि' । शब्दादिविषया :प्रीती रतिः । अमनोज्ञविषयसन्निधाने या विमुखता सा अरतिः । हास्यकर्मोदयनिमित्तः परिणामो हर्षः। भयं, उत्सुकता, दीनतेत्येवमादिभिर्युक्तोऽपि । 'भोगपरिभोगहेर्नु' भोगोपभोगार्थ वा जीववधं मा कृथा मनसि ॥७७८॥
गा०-टो०-भूख, प्यास, रोग, शीत अथवा आतपसे पीड़ित होने पर भी जीवोंका घात करके प्यास आदिका प्रतीकार करनेका विचार मत करो। मैं कपूरके चूर्णसे सुवासित तथा बर्फसे शीतल जलका पान करूं? अथवा अति सुगन्धित कमलको रजसे व्याप्त गहरे तालाबमें घुसकर मदोन्मत्त हाथी की तरह डुबकियाँ लूँ। मस्तक, सिर और विशाल छाती पर यदि ओलोंकी वर्षा हो तो उत्तम हो । अथवा यदि कमल बालु और कोमल पल्लवों आदिकी शय्या मिले तो मैं जीवित रह सकूँ । रात दिन प्यास सताती है । सूर्यकी किरणेंके समूह को दूर करके पंखेकी शीतल वायु से मेरी सब थकान आप दूर करे । बर्फ गिरे। शीतल पवन बहे । सुगन्धित घीमें अंगार पर पके पुओं को खाऊँगा । अथवा सम्यक् रूपसे उबाले गये और शक्कर मिलाये तथा सुखकर उष्णता को लिये दूधको पीऊँ । खैरकी लकडीको धक् धक् करतो हुई आग जलाओ, मेरे अंग ठंडसे ठिठुर रहे हैं । इस प्रकारका प्रतिकार मनमें नहीं लाना चाहिये। यह उक्त कथनका आशय है । महान् असाता वेदनीय रूप वज्रपात होने पर उसका क्या प्रतीकार हो सकता है ? उसका उपशमन काल आने पर ही बाह्य द्रव्योंके द्वारा प्रतीकार संभव है. ऐसा मनमें विचार होना चाहिये ||७७७||
गा०-टी-शब्द आदि विषयोंमें प्रीतिको रति कहते हैं । अप्रिय विषयोंके प्राप्त होनेपर उनसे विमुख होनेको अरति कहते हैं । हास्यकर्मके उदयके निमित्तसे जो भाव होता है उसे हर्ष कहते हैं।
१. दयः स नो महानिति-आ० म० ।
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