________________
विजयोदया टीका
४६५
' मा कासि' मा कार्षीः । 'तं' भवान् । 'पमादं' प्रमादं । 'सम्मत्ते' सम्यक्त्वे । 'सव्वदुःखणासणगे' सर्वदुःखनिर्मूलनोद्यते । कथं सम्यक्त्वं सर्वदुःखनाशकारि ? ननु ज्ञानादीन्यपि सर्वदुःखनिवृत्तिनिमित्तानि इत्यत
आह-
'सम्मत्तं खु' श्रद्धानमेव तत्त्वस्य । 'पदिट्ठा' आधारः । ' णाणचरणवीरियतवाणं' ज्ञानस्य, चरणस्य, वीर्याचारस्य, तपसश्च । ननु सर्व एव परिणामः परिणामिद्रव्याधारो न परस्परमधिकरणतां याति ततः कथमुच्यते सम्यक्त्वमाधार इति । यथा परिणामिद्रव्यमन्तरेण ज्ञानादीनामनवस्थितिरेवं समीचीनता तेषां न दर्शनं विनेति दर्शनस्याधारता ||७३४ ||
गरस्स जह दुवारं मुहस्स चवखू तरुस्स जह मूलं । तह जाण सुसम्मत्तं णाणचरणवीरियतवाणं || ७३५ ||
'नगरस्स जह दुवारे' नगरस्य द्वारमिव नगरप्रवेशनोपायो यथा द्वारं 'तहा' तथा 'सम्मत्तं' सम्यक्त्वं द्वारं । 'णाणचरणवीरियतवाणं' ज्ञानादीनां । एवं हि ज्ञानादीन्यनुप्रविष्टो भवति जीवो यदि परिणतो भवेत्सम्यक्त्वे तदन्तरेण सम्यग्ज्ञानाद्यनुप्रवेशस्यासंभवात् । न हि सातिशयमवध्यादि, यथाख्यातं चारित्रं, बहुतर निर्ज - रानिमित्तं वा तपः प्रतिलभते जन्तुः सम्यक्त्वं विना । 'मुहस्स चक्खू जहा' मुखस्य चक्षुर्यथा शोभाविधायि ताथ ज्ञानादीनां सम्यक्त्वं विधत्ते श्रद्धानं । 'तरुस्स मूलं यथा' तरोर्मूलं यथा स्थितिनिबन्धनं, तथा सम्यक्त्वं ज्ञानादिस्थितिनिमित्तं ॥७३५॥
भावानुरागपेमाणुरागमज्जाणुरागरत्तो ब्वा ।
धम्माणुरागरत्तो य होहि जिणसासणे णिच्चं ॥ ७३६॥
गा० - टी० - सव दुःखों को जड़मूलसे उखाड़ने में तत्पर सम्यक्त्व के विषय में आप प्रमाद न करें । 'सम्यक्त्व ही सब दुःखोंका नाश करने वाला कैसे है ? ज्ञान आदि भी तो सब दुःखोंको दूर करनेमें निमित्त हैं ? ऐसा कोई कहे तो आचार्य कहते हैं - ज्ञान, चारित्र, वीर्याचार और तपका आधार तत्त्वका श्रद्धान ही है ।
शंका- सब परिणाम परिणामी द्रव्यके आधार से रहते हैं । वे परस्पर में एक दूसरेंके आधार नहीं होते। तब आप सम्यक्त्वको ज्ञानादिका आधार कैसे कहते हैं ?
समाधान - जैसे परिणामी द्रव्यके बिना ज्ञानादि नहीं रहते वैसे ही वे सम्यग्दर्शनके बिना समीचीन नहीं होते । इसलिए सम्यग्दर्शन उनका आधार होता है ||७३४||
गा०-टी०—जैसे नगरमें प्रवेश करनेका उपाय उसका द्वार होता है वैसे ही ज्ञान, चारित्र, वीर्य और तपका द्वार सम्यक्त्व है । यदि जीव सम्यक्त्व रूपसे परिणत होता है तो वह ज्ञानादिमें प्रवेश कर सकता है । सम्यक्त्वके बिना ज्ञानादिमें प्रवेश सम्भव नहीं है । सम्यक्त्वके विना जीव सातिशय अवधि ज्ञान आदि, यथाख्यात चारित्र अथवा वहुत निर्जरामें निमित्त तपको प्राप्त नहीं कर सकता । तथा जैसे नेत्र मुखको शोभा प्रदान करते हैं वैसे ही सम्यक्त्वसे ज्ञानादि शोभित होते हैं । तथा जैसे जड़ वृक्षकी स्थिति में कारण है वैसे ही सम्यक्त्व ज्ञानादिकी स्थिति में निमित्त है || ७३५||
Jain Education International
गा० - इस जगत् में लोग परपदार्थों में अनुराग रूप हैं, स्नेही जनो में प्रेमानुरागी हैं । कोई
1
५९
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org