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विजयोदया टीका
'अभत्तिमंतस्स' भक्तिरहितस्य क्व ? अहंदादिषु ।।७४७॥
तेसिं आराधणणायगाण ण करिज्ज जो णरो भत्ति ।
धत्तिं पि संजमंतो सालिं सो ऊसरे क्वदि ।।७४८॥ 'तेसि आराधणणायगाणं' अहंदादीनां आराधनाया नायकानां । 'ण करिज्ज जो गरो भत्ति' यो नरो भक्ति न करोति । सो त्ति पि संजमंतो' नितरां संयम उद्यतोऽपि शालीनषरे देशे वपति । ऊषरे शालिवपनं अफलं यथा कः करोत्येवं दुश्चरं संयमं चरत्ययं अहंदादिषु भक्तिरहितो मिथ्यादृष्टिः सन्निति भावः ॥७४८॥
बीएण विणा सस्सं इच्छदि सो वासमन्भएण विणा ।
आराधणमिच्छन्तो आराघणभत्तिमकरंतो ॥७४९॥ 'बोजेण विणा सस्स' शस्यमिच्छति बोजेन विना । 'वासमन्भएणविणा' वर्ष वाञ्छति अभ्रण विना । कारणेन विना कार्यमिच्छतीति यावत् । 'आराधणं" रत्नत्रयसंसिद्धि इच्छति अकुर्वन्नाराधनाभक्ति हेतुभूतां ।।७४९॥
विधिणा कदस्स सस्सस्स जहा णिप्पादयं हवदि वासं ।
तह अरहादिगमती णाणचरणदंसणतवाणं ॥७५०॥ 'विधिणा कदस्स' विधीयते जन्यते कार्यमनेनेति कारणसंदोहो विधिः । तेन कारणकलापेन कृतस्योप्तस्य । 'सस्सस्स' सस्यस्य । 'वासं जहणिप्पादयं हवदि' वर्ष यथा फलनिष्पत्ति करोति । 'तह तथैव । 'आराहगभत्तो' आराधकेप अहंदादिपु 'भत्ती' भक्तिः । 'णाणचरणदंसणतवाणं' ज्ञानस्य, दर्शनस्य चारित्रस्य. तपसश्च निष्पादिका भवति ।।७५०॥
गा०—विद्या भी भक्तिमानकी ही सिद्ध और सफल होती है। तब जो अर्हन्त आदिमें भक्ति नहीं रखता उसके मोक्षका बीज रत्नत्रय कैसे सिद्ध प्राप्त हो सकता है ? ॥७४७।।
गा०-दर्शन आदि आराधनाओंके नायक अर्हन्त आदिकी जो मनुष्य भक्ति नहीं करता वह संयममें अत्यन्त तत्पर होते हुए भी धान्यको ऊसर भूमिमें बोता है ॥६४८॥
विशेषार्थ-इसका भाव यह है कि ऊसर भूमि में कौन धान बोता है। क्योंकि उसका कोई फल नहीं है । उसी प्रकार यह अर्हन्त आदिमें भक्ति रहित अर्थात् मिथ्यादृष्टि होते हुए कठिन संयमका आचरण करे तो वह निष्फल है ।।७४८॥
गा०–आराधनाके नायकोंकी भक्ति न करके जो आराधना अर्थात् रत्नत्रयकी सिद्धि चाहता है वह बीजके विना धान्य चाहता है और बादलोंके विना वर्षा चाहता है |७४९||
गा.---जिससे कार्य किये जाते हैं उसे विधि कहते हैं अतः विधिका अर्थ होता हैकारणोंका समूह। उस विधिसे बोये गये धान्यको वर्षा जैसे उत्पन्न करती है उसी प्रकार अर्हन्त · आदिको भक्ति ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तपकी उत्पादक होतो है ॥७५०॥
१. णिम्मावगं-अ० आ० ।
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