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भगवती आराधना
आद्यया गाथयोक्ता। द्वितीयया चित्तस्य स्ववशकारित्वं ज्ञानभावनयोक्तं । अनया तु अशुभपरिणामप्रशान्तिकारिता ज्ञानभावनया निरूप्यते ॥७६१।।
आरण्णवो वि मनो हत्थी णियमिज्जदे वरत्ताए ।
जह तह णियमिज्जदि सो णाणवरत्ताए मणहत्थी ।।७६२।। 'आरण्णवो वि मत्तो हत्थी' अरण्यचारी मत्तो हस्ती । "णियमिज्जदे वरत्ताए' नियम्यते निरुध्यते वरत्रेण यथा । तथा 'मणहत्थी णियमिज्जदे' मनोहस्ती नियम्यते । 'णाणवरत्ता' ज्ञानवरत्रेण । प्राणिनामहितकारितया, दुर्निवारतया च मनो हस्तीवेति मनोहस्तीति भण्यते । ज्ञानमशुभप्रवाहं निरुणद्धि । इत्यनयोच्यते ॥७६२॥ ज्ञानवरत्रानियमितस्य मनसो व्यापार निरूपयत्युत्तरगाथा
जह मक्कडओ खणमवि मज्झत्थो अत्थिदु ण सक्केइ ।
तह खणमवि मज्झत्थो विसएहिं विणा ण होइ मणो ।।७६३।। 'मक्कडओ खणमवि मज्झत्थो अत्यिदु जहा सक्कदि' मर्कटकः क्षणमपि मध्यस्थो निर्विकारः सन् स्थातुं न शक्नोति । 'तहा मणो विसएहि विणा मज्झत्थो खणमवि ण होदि' तथा मनो विषयः शब्दादिविषयनिमित्ता रागादय इह विषयशब्दवाच्या विषयकार्यत्वात् । ततोऽयमर्थः, अत्र रागद्वेषी विना मध्यस्थं मनो भवति । ज्ञानभावनायामसत्यां रागद्वेषयोवृत्तिरेव मनसो व्यापार इत्यर्थः । एतया ज्ञानं मनसो माध्यस्थं करोतीत्याख्यायते । यस्मान्न मनसो माध्यस्थ्यमस्ति संनिहितमनोज्ञामनोज्ञविषयरागद्वेषसहचारितया ।।७६३।।
तम्हा सो उड्डहणो मणमक्कडओ जिणोवएसेण । रामेदव्वो णियदं तो सो दोसं ण काहिदि से ।।७६४।।
ज्ञानको अशुभका निग्रह करनेमें हेतु कहा। दूसरी गाथासे ज्ञान भावनाके द्वारा चित्त अपने वशमें होता है यह कहा। इस गाथासे ज्ञान भावनाके द्वारा अशुभ परिणामोंकी शान्ति होती है यह कहा ॥७६१॥
गा०-जैसे चमड़ेके कोड़ेसे जंगली भी मस्त हाथी वशमें किया जाता है। वैसे ही ज्ञान रूपी चर्मदण्डसे मन रूपी हाथी वशमें किया जाता है। प्राणियोंका अहितकारी तथा दुर्निवार होनेसे मनको हाथीकी तरह कहा है। ज्ञान अशुभ प्रवाहको रोकता हैं यह इस गाथासे कहा है ॥७६२।।
आगे ज्ञानरूपी चर्मदण्डसे वशमें किये गये मनका व्यापार कहते हैं
गा०-जैसे बन्दर एक क्षण भी निर्विकार होकर ठहर नहीं सकता, वैसे ही मन एक क्षण भी विषयोंके विना नहीं रहता। यहाँ विषय शब्दसे शब्द आदिके निमित्तसे होने वाले रागादिको लिया है क्योंकि वे विषयोंसे उत्पन्न होते हैं । इसलिए ऐसा अर्थ होता है कि रागद्वेषके विना मन मध्यस्थ नहीं होता है । अर्थात् ज्ञान भावनाके अभाव में रागद्वषमें प्रवृत्ति करना ही मन का व्यापार हैं । इस गाथासे कहा है कि ज्ञान मनको मध्यस्थ करता है। निकटवर्ती प्रिय और अप्रिय विषयोंमें रागद्वष करनेसे मन मध्यस्थ नहीं होता ॥७६३||
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