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विजयोदया टीका
४७५ मत्तस्स हु चित्तहत्यिस्स' ज्ञानमङ्कशभूतं मत्तस्य चित्तहस्तिनः । इदमत्र चोद्यते-इह चित्तशब्देन किमुच्यते ? अन्यत्र सचित्तशीतसंवृत इत्यादी चित्तं चैतन्यमिति गृहीतं । इहापि यदि तदेव तस्य निग्रहो नाम कः? अत्रोच्यते-विपर्ययज्ञानमया अशुभध्यानलेश्यातया वा परिणतिः' प्राणभृतो यस्य तस्य निरोधो यथार्थज्ञानपरिणामेन क्रियते । परिणामो हि परिणामिनं निरुणद्धि, परिणामोऽस्माद्विरुद्धस्त्वया नादातव्यः इति । यथा मत्तो हस्ती न क्वचिदवतिष्ठते बन्धनमर्दनादिकं विना तच्चित्तहस्त्यपि यत्र क्वचनाशुभपरिणामे प्रवर्तते इति ।।७५९।।
विज्जा जहा पिसायं सुट्ट पउत्ता करेदि पुरिसवसं ।
णाणं हिदयपिसायं सुट्ट पउत्ता करेदि पुरिसवसं ।।७६०।। 'विज्जा सुट्ठ पउत्ता जहा पिसायं पुरिसवसं करेदि' विद्या सुष्ठु प्रयुक्ता सम्यगाराधिता यथा पिशाचं पुरुषस्य वश्यं करोति । 'तह णाणं सुठ्ठवजुत्तं वसं करेवि हिदयपिसायं' । तथा ज्ञानं सुष्ठु प्रयुक्तं वशं करोति किं ? हृदयपिशाचं । चित्तं पिशाचवदयोग्यकारितया ज्ञानं समीचीनं असकृत्प्रवर्तमानं शुभे शुद्ध वा परिणामे प्रवर्तयति चेतनामिति यावत् ॥७६०॥
उवसमइ किण्हसप्पो जह मंतेण विधिणा पउत्तेण ।
तह हिदयकिण्हसप्पो सुट्टवजुत्तेण गाणेण ।।७६१।। 'उवसमदि किण्हसप्पो' उपशाम्यति कृष्णसर्पः। 'जह' यथा। 'मंतेण सुप्पजुत्तेण' स्वाहाकारान्ता विद्या निःस्वाहाकारो मन्त्रशब्देनोच्यते । मन्त्रण सुष्ठु प्रयुक्तेन । 'तह' तथैव । 'हिदयकिण्हसप्पो उवसमदि' हृदयकृष्णसर्प उपशाम्यति । 'सुठ्ठवजुत्तेण णाणेण' सुष्ठु प्रवृत्तेन ज्ञानपरिणामेन । अशुभनिग्रहहेतुता ज्ञानस्य नहीं होता, यह कहते हैं-मदोन्मत चित्तरूपी हाथीके लिए ज्ञान अंकुश रूप है ।
शङ्का-यहाँ चित्त शब्दसे क्या लिया है ? तत्त्वार्थ सूत्रमें 'सचित्त शीत संवृत' इत्यादि सूत्रमें चित्तसे चैतन्यका ग्रहण किया है । यहाँ भी यदि चैतन्य ही लिया है तो उसका निग्रह कैसा?
समाधान-जिस प्राणीकी परिणति विपरीत ज्ञान रूप या अशुभ ध्यान और अशुभ लेश्या रूप होतो है उसका निरोध यथार्थ ज्ञानरूप परिणामसे किया जाता है। परिणाम परिणामीको रोकता है जैसे तुम्हें हमारे विरुद्ध परिणाम नहीं करना चाहिए। अतः जैसे मत्त हाथी बन्धन मर्दन आदिके विना वशमें नहीं होता वैसे ही चित्तरूपी हाथी भी जिस किसी भी अशुभ परिणाम में प्रवृत्त होता है ।।७५९॥
गा०-जैसे सम्यक् रीतिसे साधी गई विद्या पिशाचको पुरुषके वशमें कर देती है। वैसे ही सम्यक् रूपसे आराधित ज्ञान हृदय रूपी पिशाचको वशमें करता है। अयोग्य काम करनेसे चित्त पिशाचके समान है। बार-बार प्रयुक्त सम्यग्ज्ञान चेतनाको शुभ अथवा शुद्ध परिणाममें प्रवृत्त करता है ।।७६०॥
गा-जैसे विधिपूर्वक प्रयोग किये गये मंत्रसे कृष्ण सर्प शान्त हो जाता है। वैसे ही अच्छी तरहसे भावित ज्ञानसे हृदयरूपी कृष्ण सर्प शान्त हो जाता है। प्रथम गाथा (७५९) से .
१. तिं प्राकृत यस्य निरोधः अ० । २. स्मद्वि-अ० मु०। ३. द्या इति स्वा-आ० मु० । ।
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