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विजयोदया टोका
४५१ भविष्यति । 'तं च से विसदं होदित्ति' पदसम्बन्धः । तुण्डवैशा अपि क्षपकस्य भविष्यति । निर्यापकव्यावर्णना समाप्ता ॥६८७॥ णिज्जावयपगासणा इत्येतद्वदति
दव्वपयासमकिच्चा जइ कीरइ तस्स तिविहवोसरणं ।
कझिवि भत्तविसेसंमि उस्सुगो होज्ज सो खवओ ।।६८८।। 'दश्वपगासमकिच्चा' द्रव्यस्याहारस्य प्रकाशनं तं प्रति ढोकनं अकृत्वा । 'जड़ कीरई' यदि क्रियते । 'तस्त' तस्य क्षपकस्य । 'तिविहवोसरणं' त्रिविधाहारत्यागः । 'कम्हिवि' कस्मिंश्चिदपि । 'भत्तविसेसम्मि' भक्तविशेषे । 'उस्सुगो होज्ज सो खवओ' उत्सुको भवेत्स क्षपकः । आहारोत्सुक्यं च चित्तं व्याकुलयति ॥६८८।।
तम्हा तिविहं वोसरिहिदित्ति उक्कस्सयाणि दव्वाणि । सोसित्ता संविरलिय चरिमाहारं पयासेज्ज ।।६८९।। पासित्तु कोइ तादी तीरं पत्तस्सिमेहिं कि मेति ।
वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ॥६९०॥ 'पासित्त' दृष्ट वा आहारमुपदर्शितं । 'कोइ' कश्चित् । 'तादो' यतिः । 'तीरं पत्तस्स' तीरं प्राप्तः य । 'इमेहि' अमीभिर्मनोहराहारैः । कि मेत्ति' किं ममेति । 'वेरग्गमणुप्पत्तो' भोगवैराग्यमनुप्राप्त उपगतः । 'संवेगपरायणो होदि' संसारभयत्यागे' प्रधानो भवति ॥६९०॥
आसादित्ता कोई तीरं पत्तस्सिमे हिं कि मेत्ति ।
वेरग्गमणुप्पत्तो संवेगपरायणो होदि ॥६९१।। और कानोंको बल मिलता है और मुख साफ होता है ॥६८७।।
इस प्रकार निर्यापकका कथन समाप्त हुआ। अब निर्यापकके द्वारा आहारके प्रकाशनका कथन करते हैं
गा०—आहारका प्रकाशन अर्थात क्षपकके सामने विविध भोजनोंको उपस्थित न करके यदि तीन प्रकारके आहारका त्याग कराया जाता है तो क्षपक किसी भी भोजन विशेषमें उत्सुक बना रह सकता है । और आहारमें उत्सुकता चित्तको व्याकुल करती है ।।६८८।।
गा०-अतः उत्तम-उत्तम भोजन पात्रोंमें अलग-अलग उसके सामने रखकर जब वह सन्तुष्ट हो जाये तो अन्तिम आहार उपस्थित करे। ऐसा करनेसे क्षपक तीनों प्रकारके आहारको छोड़ देगा ।।६८९॥
विशेषार्थ-टीकाकारने यह गाथा नहीं मानी।
गा०-कोई यति दिखाये गये आहारोंको देखकर 'मरणको प्राप्त मुझे इन मनोज्ञ आहारोंसे क्या प्रयोजन' ऐसा विचार भोगोंसे विरक्त होकर संसारके भयको त्यागने में प्रमुख होता है ।।६९०॥
१. भयात्त्यागे-आ० मु० ।
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