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भगवती आराधनों
बसात्तिसांस्तरं । उपवि पिछादिकं च । 'सोधयित्ता' विशोध्य । 'सल्लेहणं' सल्लेखनां । 'कुण' कुरु । 'इदाणि' इदानों। कि? संयमासंयमविवेकज्ञाः असंयमं विधा मनोवाक्कायैः परिहरन्ति न वेति परीक्ष्य अयोग्यवैयाअल्मकराणा व्याणाः ॥ योग्यानां चानुज्ञा । पूर्वापरायोर्वसतेः, संस्तरस्योपकरणानां च शुद्धि कुरुतेति आज्ञागायत्ता लच्छद्धिः कृता भवति ॥७२०॥
मिच्छत्तस्स य वमणं सम्मत्ते भावणा परा भत्ती ।
मावणमोक्काररदि णाणवजुत्ता सदा कुणसु ॥७२१॥ "मिच्छत्तस्स य वमणं' मिथ्यात्वस्य वमनं । 'सम्मत्ते भावणा' तत्त्वश्रद्धाने असकृदवत्तिः । 'परा भत्ती' । उत्कृष्या भक्तिः । “मावचमोक्काररदी' नमस्कारो द्विविधः द्रव्यनमस्कारो भावनमस्कार इति। नमस्तस्मै इत्यादि शब्दोच्चारण. उत्तमाङ्गावनतिः, कृताञ्जलिता च द्रव्यनमस्कारः । नमस्कर्तव्यानां गुणानुरागो भावसमस्कारस्ता रत्तिः । 'पानुवयोग' श्रुतज्ञानोपयोगं च । सदा 'कुणसु' कुर्विति । सूत्रमिदं ॥७२१॥
पंचमहन्वयरक्खा कोहचउक्कस्स णिग्गहं परमं ।
दुद्दतिंदियविजयं दुविहतवे उज्जमं कुणसु ॥७२२॥ "पंचमहब्बयरक्सा' पञ्चानां महाव्रतानां रक्षां । 'कोहचउक्कस्स' रोषचतुष्कस्य । “णिग्गह' निग्रहं । परवं प्रकृष्ट । “दु तबियविजयं' दुर्दातेन्द्रियविजयं । 'दुविधतवे' द्विप्रकारे तपसि । 'उज्जम' उद्योगं । "कुपान्तु कुरु ॥२२॥
'मिच्छतास य वमणं' इत्येतत्सूत्रपदं व्याचष्टे
कह बयाबृत्य करनेवाला है । हे क्षपक ! वैयावृत्य करनेवाला, वसति, संस्तर और पीछी आदिका शोधाना करके तुम सल्लेखना करो। इसका अभिप्राय यह है क्षपक यह देखे कि वैयावृत्य करनेयाले भनि संथम और असंयमके भेदको जानते हैं या नहीं? वे मनवचनकायसे असंयमका परिहार करते हैं या नहीं ? यह परीक्षा करके अयोग्य वैयावृत्य करनेवालोंको हटा दें और योग्य वैयावृत्य करनेवालोंको स्वीकार करे। पूर्वाद्धं और अपराह्नमें वसति, संस्तर और उपकरणोंकी शुद्धि करो ऐसी आज्ञा देनेपर उनकी शुद्धि मानी जाती है। इनकी शुद्धिपूर्वक तुम समाधि करो। अब तुम्हारा मारणसम्मन्य निकट है । ऐसा क्षपकके कानमें कहते हैं ॥७२०॥
___ मा–मिथ्यात्वका त्याग करो। तत्वश्रद्धानकी भावना करो। अर्हन्त आदिमें उत्कृष्ट भाक्ति करो। भावनमस्कारमें मन लगाओ। नमस्कारके दो भेद हैं-द्रव्यनमस्कार और भावनमारस्कार । जिनदेवको नमस्कार हो इत्यादि शब्दोंका उच्चारण करना, मस्तक झुकाना, दोनों हाथ जोड़ना, ये सब द्रव्यनमस्कार हैं और नमस्कार करने योग्य अर्हन्त आदिके गुणोंमें अनुराग होन्ना भावनमस्कार है। उस भावनमस्कारमें मन लगाओ और सदा श्रुतज्ञानमें उपयोग लगाओ७२२॥
या-पाँच महाव्रतोंकी रक्षा करो। क्रोध आदि चार कषायोंका उत्कृष्ट निग्रह करो। दुर्दान्त इन्द्रियों को जोतो और दो प्रकारके तपमें उद्योग करो ॥७२२॥
'मिथ्यात्वका त्याग करो' गाथाके इस पदका व्याख्यान करते हैं
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